राजपुत्री सखियों - सहित बैठ गई । तब रावण ने कहा - “ हे चपलनेत्र , यद्यपि तेरे दर्शन -मात्र से ही मेरे नेत्र सफल हो गए , पर सभा में नृत्य करते समय तूने सभी के समान मुझे भी समझ मेरा अपमान ही किया । ” बाला ने मन्द मुस्काकर और अपनी भारी -भारी पलकें उठाकर कहा - “ यह अपराध तो उसका है जिसने सभा में मेरा नृत्य बिगाड़कर मुझे लज्जित किया। " ___ इस पर हंसकर रावण ने विलासिका का हाथ पकड़ लिया । इसी समय कुंजरकुमार दैत्य की पुत्री प्रहृष्टरोमा भी वहां आ पहुंची। वहां विलासिका को देख वह ईर्ष्या से जलकर बोली - “ हे सखी, कुशल तो है, आज इस समय रात्रि में तू यहां कैसे आई ? " _ विलासिका ने कहा - “ यह तो मेरे ही पितृव्य का घर है। रक्षेन्द्र मेरा अतिथि है । इसी तरह तुम भी मेरी अतिथि हो । मैं तुम्हारा भी सत्कार करती हूं। " ___ “ यह तो बहुत अच्छी बात है । मैंने सुना था , यहां जो भी आता है उसका तुम इसी भांति सत्कार करती हो । ” विलासिका ने रुष्ट होकर कहा- “ परन्तु मैं तुम्हारे समान, बिना बन्धुओं की आज्ञा के अकेली पराये स्थान में नहीं जाती। " यह उत्तर सुन क्रुद्ध हो , कुछ भी जवाब दिए बिना, प्रहृष्टरोमा चली गई और खिन्नमन विलासिका भी सखियों समेत उठकर चल दी । विवश रावण भी विमन हो रात भर करवटें बदलता रहा। दूसरे दिन नमुचि दानव ने आकर मय से कहा - “मैं आज रक्षेन्द्र का अपने घर आतिथ्य करके अपनी कन्या विलासिका उसे दूंगा । ” सबके सहमत होने पर उसने वेदी रच अग्नि -स्थापना की और अपनी कन्या अनेक रत्नों - सहित रावण को दे दी । दूसरे दिन कुंजरकुमार दैत्य ने आकर कहा - “ आज आप सब लोग मेरे स्थान पर आइए, वहां मैं रक्षेन्द्र रावण का सत्कार करूंगा तथा अपनी पुत्री प्रहृष्टारोमा उसे दूंगा । ” फलतः सभी दैत्य दानवों ने वहां जा रक्षेन्द्र के साथ उसका आतिथ्य ग्रहण किया और उसने सबका विधिवत् सत्कार कर अपनी कन्या रावण को दे दी । तीसरे दिन दुरारोह ने अपनी त्रैलोक्यसुन्दरी कन्या कुमुदवती उसे दे दी । चौथे दिन तन्तुकच्छ ने निमन्त्रण दे तप्त कांचन की प्रभावाली कन्या प्रभावती उसे दी । पांचवें दिन मदनकेतु दैत्य ने पान - गोष्ठी रच दूर्वा के समान कान्तिवाली श्यामलांगी , मदनशर के समान अपनी सुभद्रा कन्या उसे दी । छठे दिन सुबाहु ने अपनी नवीन पल्लवों के समान कोमल अंगवाली माधुरी कन्या और सातवें दिन सुभाय ने कसम - कोमल समाया कन्या दी । आठवें दिन भद्रजंघ दानव ने आकर निवेदन किया - " हे रक्षेन्द्र , आज तुम्हारे आतिथ्य की मेरी बारी है। मैंने सुरपुर से बारह दिव्य देवांगनाओं का हरण किया था । वे सब रूप -किशोरी एक से एक बढ़कर हैं । उनमें अमृतप्रभा तथा केशिनी नाम की दो ऋषि- कन्याएं हैं । कालिन्दी , भद्रिका और दर्पकमाला, देवलमुनि की कन्याएं हैं । सौदामिनी और उज्ज्वला हाहा गन्धर्व की पुत्रियां हैं । पीवरा हह गन्धर्व की बेटी है । अंजनिका काल दैत्य की पुत्री है, केशरावती पिंगल मरुत् की पुत्री है । ये बारहों दिव्यांगनाएं मेरी दुलारी पुत्री अनंगभद्रा की सखियां हैं । अब सब दैत्य - दानवों की पान - गोष्ठी में मैं ये तेरह कन्यारत्न तुम्हें दूंगा । ” सब दैत्य - दानवों ने यह प्रस्ताव प्रसन्नता से स्वीकार किया । दानव भद्रजंघ ने बहुत - से दहेज के साथ तेरहों कन्याएं रक्षेन्द्र को दे दी ।
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