काम करूं जिससे मेरे कुल की भलाई हो । उसने दूरदर्शिता से विचार कर अपनी प्राणाधिका पुत्री कैकसी से कहा - “ हे पुत्री , तू रूप और गुण में लक्ष्मी के समान है । अब तू युवावस्था को प्राप्त हुई है । मैं चाहता हूँ कि प्रजापति के वंश में उत्पन्न पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा मुनि के पास जा और उसको पति बनाकर कुबेर के समान तेजवान् पुत्र उत्पन्न कर । जब तक तू ऐसा न करेगी, हम बन्धनमुक्त न होंगे। ” इस प्रकार कैकसी को सब आगा- पीछा समझा -बुझाकर उसने उसे पुलस्त्य - पुत्र विश्रवा के पास उसके आश्रम में भेज दिया । कैकसी ने विश्रवा के पास जाकर कहा - “ हे तपोधन, मैं दैत्य महासेनापति सुमाली की कन्या हूं और आपके पास पिता की आज्ञा से पुत्र - प्राप्ति की अभिलाषा से आई हूं। ” विश्रवा मुनि अधेड़ावस्था में थे। इस रूपसी तरुणी दैत्यबाला के ये वचन सुन और उसका तारुण्य देख मोहित हो गए। उन्होंने उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और उसे अपने निकट आश्रम में रख लिया । सुमाली दैत्य भी पुत्रों सहित वहीं विश्रवा के आश्रम में जाकर रहने लगा । सुमाली बड़ा दूरदर्शी और राजनीतिज्ञ पुरुष था । इस कार्य से उसका सम्बन्ध प्रजापति के वंश से स्थापित हो गया । अब वह पुत्री के पुत्र की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करने लगा। समय प्राप्त होने पर विश्रवा को कैकसी से तीन पुत्र और एक पुत्री हुई। पुत्रों में रावण , कुम्भकर्ण और विभीषण तथा पुत्री शूर्पणखा। विश्रवा ने तीनों पुत्रों को विधिवत् वेद पढ़ाया । परन्तु इन बालकों के नाना सुमाली की तो कुछ दूसरी ही अभिसन्धि थी । ये बालक अपने मामाओं के साथ खेलते - खाते बड़े होने लगे । रात -दिन उन्हीं के साथ रहने लगे । उन सब पर नाना सुमाली का प्रभाव रहा। इन सबके बीच माता कैकसी का नियन्त्रण । इस प्रकार माँ -मामा -नाना इस मातृकुल का ही सांस्कृतिक प्रभाव इन बालकों पर पितृकुल की अपेक्षा अधिक रहा । दैत्यकुल में मातृकुल की प्रधानता की परम्परा थी ही । विश्रवा मुनि ने इस बात पर अधिक ध्यान नहीं दिया । एक बार धनेश्वर कुबेर पुष्पक विमान पर चढ़कर अपने पिता से मिलने आया । कैकसी ने उसे दूर से दिखाकर रावण से कहा - “ अपने भाई धनेश्वर कुबेर को देख और अपनी ओर देख । इसकी अपेक्षा तू कितना दीन - हीन है । मेरी अभिलाषा है कि तू उद्योग करके इसके समान हो जा । " माता के ये वचन सुन तथा कुबेर का ऐश्वर्य देख रावण को बड़ी ईर्ष्या हुई। उसने हुंकार भरके कहा - “ माता , तू चिन्ता न कर , मैं अपने इस भाई के समान ही नहीं , इससे भी बड़ा बनकर रहूँगा । ” अब ज्यों ही रावण और उसके भाई युवा हुए , उनके नाना सुमाली ने अपनी पैतृक नगरी लंका लेने के लिए उन्हें उकसाया । बहुधा सुमाली रावण को छाती से लगाकर और लम्बी - लम्बी उसासें लेकर कहता - “ अरे दौहित्र , मैं तुझसे क्या कहूँ , हम तीनों भाइयों ने अपने भुजबल से हिरण्यपुर की अतुल सम्पदा, कोटि भार स्वर्ण इस लंकापुरी में लाकर इसे सम्पन्न किया । इसके हर्म्य- सौध सब हिरण्यपुर के अनुरूप स्वर्ण ही से निर्मित कराए, उसे मैंने सब भाँति सुपूजित, सुप्रतिष्ठित किया । परन्तु भाग्यदोष से वह मेरी स्वर्ण लंका अब मेरी न रही । आज यदि वह मेरी होती , तो पुत्र , तू ही उसका स्वामी और अधिपति होता । वह सब धन- रत्न , मणि - माणिक्य हिरण्यमय सौध -हर्म्य सब तेरे ही तो हैं । पुत्र , तू ही उनका स्वामी है । वहाँ के सब स्वर्ण- भण्डार, शस्त्रागार एवं वैभव का मैं तुझसे कहाँ तक वर्णन करूँ । आज तुझे , प्राणों से प्रिय अपने दौहित्र को , अनाथ की भाँति देख मेरी छाती फटती है । परन्तु मैं कहता हूँ – “ पुत्र , एक दिन तू ही लंका का अधीश्वर, दक्षिण का लोकपाल और इन सब द्वीपसमूहों का स्वामी होगा, सर्वजयी, यशस्वी
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