सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/२५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

73. सुभद्र वट धनुष्कोटि के निकट , समुद्र -तीर से कुछ हटकर एक रमणीय वन था । वन में एक निर्मल सरोवर था । सरोवर के तट पर एक विराट् सुभद्र वट था । इस सुभद्र वट की चार सौ शाखाएं थीं तथा इसका विस्तार सात योजन भूमि पर था । यह वट बहुत प्राचीन था । प्रसिद्ध था कि इसी के नीचे बालखिल्य ऋषियों ने तप किया था । बहुत दिन यहां गरुड़ेन्द्र ने विलास किया था । वट के चारों ओर रम्य पर्वतश्रेणियां थीं । सम्मुख ही नील नीरधि का अनन्त विस्तार था । जिस भूमि -भाग पर यह मनोरम सरोवर और महावट था , वह बहुत दूर तक समुद्र में धंसा हुआ था । समुद्र के तट को छूती हुई अनेक पर्वत -श्रृंखलाएं थीं । चारों ओर तमाल के पुष्प खिले थे। गोल मिर्च की लताएं जहां - तहां सुशोभित थीं । पर्वत - श्रेणियों के आस -पास ढेरों मोती, सीप सूख रहे थे। मूंगों के भी वहां ढेर लगे थे। स्थान - स्थान पर स्वच्छ जल के झरने नेत्रों को आनन्द दे रहे थे। निकट ही पुर एवं नगर था । नगर बड़ा सम्पन्न था , उसके नागरिक हाथियों , घोड़ों, रथों आदि पर सवार हो अपने कामों से राजपथ पर आ - जा रहे थे। सब मिलाकर इस स्थान की शोभा अतुलनीय थी । सुभद्र वट की प्रतिष्ठा तो बहुत पुरानी थी ही , परन्तु इस समय यहां पर परम ज्ञानी और वीतराग तपस्वी तप कर रहा था । वह सब एषणाओं से रहित , एकान्तवासी हो , मूक मौन सर्वभूत - दयारत निरीह भाव से रहता था । वास्तव में वह वृद्ध तपस्वी था । दूर - दूर तक उसकी ख्याति थी और लोग उसे राजर्षि की भांति सुपूजित मानते थे। प्रसिद्ध था कि वह कोई महान राजा था । वास्तव में वह वृद्ध तपस्वी और कोई नहीं , राक्षस मारीच था । नैमिषारण्य के अभियान के बाद रावण के जगज्जयी हो जाने पर उसने सब भांति कर्म संन्यास ले लिया था और वह बड़े निरीह भाव से वहां रहता था । ____ अकस्मात् रावण ने इस शान्त आश्रम में प्रवेश किया । उसके स्वर्ण -रथ की घण्टिकाएं किंकिणित होती हुई दिशाओं को प्रतिध्वनित करने लगीं। रथ का घोष सुन , जटाजूट और वल्कल - वसन पहने वृद्ध मारीच गुहा से बाहर आया और उसने सुभद्र वट के नीचे राक्षसराज रावण की अभ्यर्थना की । मारीच के साथ आश्रम में और बहुत नाग , दैत्य , राक्षस तपस्वी रहते थे। वे बहुत अल्प भोजन करते , धर्माचरण में रत रहते तथा वेदाध्ययन करते थे। वे सब भी आश्रम की स्त्रियों, तपस्विनियों सहित रक्षेन्द्र रावण की अभ्यर्थना को एकत्र हो गए । मारीच ने अपने साथी तपस्वी राक्षसों और वेदपाठी दैत्यों , नाग - कुमारों के साथ रावण की भारी अभ्यर्थना की । अलौकिक भोग - सामग्रियों द्वारा राजा का विधिवत् पूजन किया । अन्न - जल से सत्कार किया । फिर मारीच ने स्वस्थ होने पर पूछा - “ हे राक्षसराज , लंका में कुशल तो है! यहां किस अभिप्राय से आना हुआ ? क्या मुझ अकिंचन दास से कुछ प्रयोजन आ उपस्थित हुआ ? वह सब विस्तार से कहिए। "