पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/२७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मैंने इस दीर्घायु से बहुत अनुभव पाया । संसार का मुझे यथावत् ज्ञान है । प्रत्येक बात का मुझे पूरा अनुभव है । मैं अब एक क्षण का भी विलम्ब इस कार्य में नहीं करूंगा। कल ही मैं यह शुभ कार्य पूरा करूंगा । मनुष्य के विचार सदैव एक - से नहीं रहते , उनमें परिवर्तन होता ही रहता है। इसमें मैं अब अधिक सोच-विचार में समय नष्ट करना नहीं चाहता । इसी से मैं निश्चय ही कल यह काम पूरा करूंगा। आज रात तुम और वधू सीता उपवास करो तथा शय्या पर कुश बिछाकर शयन करो। रक्षकगण पूर्णतः सतर्क और सचेत रहें तथा सुमन्त्र रात - भर जागकर स्वयं तुम्हारी रक्षा करें । मैं जानता हूं , शुभ कार्यों में बहुत विघ्न आते रहते हैं । तुम्हारे भाई ननसाल गए हैं । मेरी इच्छा है कि उनके आने से पूर्व ही तुम्हें युवराज बना दूं । यद्यपि भरत तुम्हारा अनुयायी है, फिर भी मनुष्य -स्वभाव चंचल है । " । पिता की यह सीख सिर धार, राम उनके चरणों में सिर झुका अपने आवास को चल दिए ।