पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/२७४

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77. कैकेयी का स्त्री - हठ सुन्दरी रानी कैकेयी ने यही किया । मलिन वस्त्र पहन , बाल बिखेर , निराभरण हो , कोप - भवन में जाकर भूमि पर लेट गई । राजा दशरथ प्रसन्न थे। क्षण - क्षण पर वे आदेश दे रहे थे। वशिष्ठ, वामदेव , विश्वामित्र आदि ऋषि अभिषेक- सामग्री जुटा रहे थे। राज - प्रासाद की पौर पर दुन्दुभि बज रही थी । रनिवास में अन्न - वस्त्र , धन - रत्न दान किया जा रहा था । अभ्यागतों, अतिथियों तथा ऋषियों से राजद्वार पटा पड़ा था । सुमन्त्र सबका यथोचित सत्कार कर रहे थे। इसी समय राजा को संदेश मिला कि देवी कैकेयी कोपभवन में चली गई हैं । देवी कैकेयी का राजमहालय अति भव्य था । उसमें सभी प्रकार के सुख- साधन उपस्थित थे, वह भवन स्वर्ग के समान प्रकाशवान था । सब ऋतुओं के अनुकूल सभी भांति की सुख - सामग्री उस विलास -कक्ष में थी । परन्तु राजा ने आकर देखा , महल सूना पड़ा है । पुष्पाधार भूमि पर लुढ़क रहे हैं । गन्ध - द्रव्य धूपदानों में नहीं जल रहे हैं , मंगल - कलश इधर उधर लुढ़क रहे हैं । वस्त्रसज्जा सब अस्त -व्यस्त छितराई पड़ी है । वह स्वर्गीय भवन नरक तुल्य हो रहा है । दासियों ने भयभीत मुद्रा से संकेत द्वारा राजा को बताया कि देवी कोप भवन में पड़ी हैं । राजा ने वहां जा कोप - भवन में पड़ी रानी को देखा और दुःखी होकर कहा - “प्रिये , किसने तेरा अहित किया , तुझे क्या दुःख है ? क्या मैं तेरा कुछ प्रिय कर तुझे प्रसन्न कर सकता हूं ? तूने यह अपनी ऐसी दुर्दशा क्यों कर रखी है ? कह , मैं तुझे प्रसन्न करने के लिए क्या करूं ? ” इतना कह राजा उंगलियों से उसके केशपाश सहलाने लगा । फिर उसने कहा - “ तू तो मेरी सर्वस्व है! मैं तुझे ऐसे दीन वेश में इस प्रकार भूमि पर लोटते नहीं देख सकता हूं। मैंने तो सदा तेरा हित किया - सदा तेरी प्रसन्नता का ध्यान रखा। अब भी तेरे लिए मैं सब कुछ करने को तैयार हूं। तू कथनीय कह। " तब रानी कैकेयी ने कहा - “ देव , मुझे किसी ने न क्रोधित किया है , न अपमानित । मैं आपसे केवल अपना प्राप्तव्य मांगना चाहती हूं । मेरे हृदय में कुछ मनोरथ है, संकल्प है । मेरी कुछ अभिलाषा है। मैं चाहती हूं , आप वचन दें - प्रतिज्ञा करें । मैं अभी अपना मनोरथ आप से कहूं । ” रानी के वचन सुन राजा ने हंसकर उसके बाल सहलाते हुए कहा - " तू तो जानती ही है कि तू मुझे कितनी प्रिय है । राम के बाद यदि कोई मेरा प्रिय हो सकता है तो वह तू ही है, अतः राम की शपथ खाकर कहता हूं कि तू अपना मनोरथ कह मैं अवश्य पूर्ण करूंगा । मेरी इस प्रतिज्ञा के साक्षी सूर्य, चन्द्र , देव , ऋषि , पितृगण हैं । रघुवंशी कभी अपनी प्रतिज्ञा से नहीं टलते हैं , सो तू जान । " कैकेयी राजा के वचन सुनकर बोली - “ आप प्रतापी इक्ष्वाकु वंश के शिरोमणि