84. ऐन्द्राभिषेक जिस समय लंका में ये सब घटनाएं घटित हो रही थीं , देव , दैत्य , दानव , यक्ष एवं रक्ष लंका में आ - जा रहे थे और इन्द्र -मोचन की तैयारी हो रही थी , तभी रक्षपति रावण के आदेश से इन्द्रजयी मेघनाद ने अत्यन्त गुप्त रूप से कैलासी का सान्निध्य प्राप्त कर लिया । कैलासी अपने इन्द्रजयी शिष्य को देखकर प्रसन्न हो गए । उन्होंने अपना वरद हस्त मेघनाद के मस्तक पर रख , गंगा का पवित्र जल उसके मस्तक पर छिड़ककर कहा - " वत्स मेघनाद , तूने इन्द्र को बन्दी बनाकर महत्कर्म किया है । इससे रावण का उत्कर्ष बहुत बढ़ गया है। अब मैं तेरा ऐन्द्राभिषेक गंगा के इस पवित्र जल से करता हूं और इस अवसर पर तुझे कुछ दिव्य विभूतियां भी देता हूं। उन विभूतियों से सम्पन्न होकर तू प्रहृष्ट - मन लंका को जा और रावण से कह कि अब वह इन्द्र को छोड़ दे यही युक्तियुक्त भी है । अब सौम्य रावण सर्वजयी हो चुका है । लोकपूजित देव आज उसके शरणापन्न हैं - अब और विग्रह से उसे क्या प्रयोजन है ! परन्तु , यह जो मैंने तेरा यहां कैलास में ऐन्द्राभिषेक किया है, सो यह तो औपचारिक ही है । तू रावण से कह कि लंका में वह इन्द्र -मोचन से पूर्व तेरे ऐन्द्राभिषेक का महत् आयोजन करे , जिसमें सब देव , दैत्य , असुर , नर , नरपतिगण , इन्द्र - सहित सेवक की भांति सेवा - कर्म करें । बस , इतना ही यथेष्ट होगा। ” इतना संकेत करके देवाधिदेव महादेव रुद्र ने हंसकर देवजयी मेघनाद की ओर देखा । मेघनाद ने बद्धांजलि , विकार - रहित हो कहा - “मेरा यह शरीर देवाधिदेव के अधीन है। " “मैं तुझ पर प्रसन्न हूं। ” कहकर रुद्र ने साभिप्राय दृष्टि से अपने चिरकिंकर नन्दी की ओर देखकर कहा - “ अरे जा , सुमेरु पर उसे ले जा और सब दिव्य विभूतियां इसे दे दे। ” इस प्रकार रुद्रदेव का संकेत पाकर गण नन्दी ने तत्क्षण भूतासन पर आरूढ़ हो सुमेरु यात्रा की । सुमेरुपति चक्रदण्ड विद्याधर ने नन्दी के मुख से रुद्र का आदेश सुना तथा मेघनाद का परिचय पाकर कहा - " वत्स , मैं मोहिनी विद्या का अधिष्ठाता हूं । जिसके पास यह विद्या होती है, वह अजेय हो जाता है । इस विद्या का प्रभाव बड़ा दुर्धर्ष है। संक्षेप में तू इतना ही जान कि अव्यक्त में सम्पूर्ण शक्ति और अणुशक्ति उत्पन्न होती है। उनमें से प्राण शक्ति से उत्पन्न हुआ नाद बिन्दुमार्ग में जाकर तट - तत्त्व और कला समेत विद्या आदिक मन्त्रता को प्राप्त होता है। ज्ञान और तप से सिद्ध इस विद्या का प्रभाव दुर्लंघ्य हैं । सो पुत्र , तुझे मैं यह मोहिनी और परिवर्तिनी विद्या देवाधिदेव रुद्र के आदेश से दूंगा । अब तू सात दिन तक सर्पो की बांबी में सों के साथ रह । " __ यह सुनकर मेघनाद उस विद्याधर को प्रणाम कर सर्पो की बांबी में चला गया । अनेक सों ने उसे दंश किया पर विद्याधर के विषहर प्रयोग से उस पर विष का प्रभाव नहीं हुआ। जब वह विष को सह गया तो विद्याधर ने दिव्य सम्मोहिनी विद्या मन्त्र - सहित उसे दे
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