पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३२०

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क्या तू उसका कुछ पता बता सकता है ? " तब राक्षस ने कहा - “ हे राम , मेरी सुन ! राजा छ: प्रकार की सन्धिविग्रह युक्तियों से अपना मनोरथ पूरा करता है। पुरुष जब कालचक्र से आक्रान्त होता है, तब उसे बुरी दशाएं भी सहनी पड़ती हैं । इसी के फलस्वरूप तू कान्तिहीन हो गया है, सो जब तक तू किसी पुरुष को मित्र न बनाएगा , तेरा मनोरथ पूरा न होगा । सो मेरा कहना माने तो तू सुग्रीव वानर से मित्रता कर ले । उसके भाई बालि ने उसे घर से बहिष्कृत कर दिया है और वह इस समय ऋष्यमूक पर्वत पर पम्पा सरोवर के निकट अपने वानर परिजनों के साथ रहता है । ये दोनों भाई बालि और सुग्रीव , बड़े बली और तेजस्वी हैं । सुग्रीव विशेषकर पराक्रमी, मित्रता की आन रखने वाला तथा बुद्धिमान पुरुष है। मित्र बनकर वह तेरी भार्या को खोज निकालने में बहुत सहायक होगा । तू अग्नि जलाकर उसकी साक्षी से उसे मित्र बना ले , जिससे भविष्य में वह तुझसे विद्रोह न कर सके । तू स्वयं भी कभी सुग्रीव का अनादर न करना, क्योंकि वह कृतज्ञ है तथा इस समय वह स्वयं एक सहायक ढूंढ़ रहा है। सो तुम दोनों भाई पहले उसका अभीष्ट कार्य पूरा कर देना , जिससे वह कृतज्ञता के भार से उऋण होने को तुम्हारा कार्य अवश्य करेगा । उसके वानर पृथ्वी के सब देश - देशान्तरों को जानते हैं । उनके द्वारा वह दुर्ग, वन , पर्वत , नदी, द्वीप सभी जगह, जहां से भी संभव होगा, तेरी पत्नी को ढूंढ़ लाएगा । मेरु, पाताल कुछ भी उसके चरों के लिए अगम्य नहीं है । सो हे राम , तू मेरी मृत्यु तक यहां ठहरकर मेरी और्ध्वदैहिक क्रिया कर। फिर यहां से पश्चिम की ओर जा । वह मार्ग वृक्ष - वनस्पतियों से सुशोभित और सुगम है, वहां ऋष्यमूक पर्वत के अंचल में तू पम्पा सरोवर पर पहुंचेगा । वहां की भूमि कंकरीली नहीं है, घाट समतल है , उस सरोवर में नील कमल बहुत हैं । उस सरोवर में विचरने वाले कुरंड , हंस , कुस और क्रौंच आदि पक्षी निरन्तर मधुर शब्द करते हैं । वहीं तू वानरों के यूथ देखेगा। वे प्रकृत वीर हैं । उनमें सिंहविक्रम हैं । वहीं निकट तेजस्वी मतंग ऋषि का आश्रम है। मतंग ऋषि अब जीवित नहीं हैं ; परन्तु उनकी सेविका तपस्विनी शबरी वहां आश्रम की स्वामिनी है । वहां का वन मातंग नाम से ही प्रसिद्ध है। उस वन में बड़े - बड़े हाथी हैं , जिनका मदगन्ध योजन - योजन विस्तार से सुरभित रहता है । पम्पा के शीर्षस्थल पर ही ऋष्यमूक है । वहां की चढ़ाई बड़ी विकट है । वहां स्पर्शमणि तथा दिव्यौषधियां बहुत हैं । इस समय उसी पर्वत की गुहाओं में विपद्स्त धर्मात्मा सुग्रीव रहता है। " इस प्रकार हितकारी वचन कहकर दनु ने ब्रह्मरन्ध्र द्वारा अपने प्राण त्याग दिए । राम - लक्ष्मण ने विधिवत् उसकी और्ध्वदैहिक क्रिया की , फिर वे सुग्रीव से मिलने को ऋष्यमूक की ओर चले । राह में विकट वन - पर्वत - उपत्यकाएं पारकर अत्यन्त धैर्यपूर्वक वे ऋष्यमूक के निकट मतंग ऋषि के आश्रम में जा पहुंचे। वहां शबरी ने उनका विधिवत् आतिथ्य कर उन्हें आश्रम में ठहराकर उनका श्रम दूर किया । ये मतंग ऋषि अन्त्यज जाति के थे। शबरी भी उन्हीं की जाति की थी । परन्तु दोनों ही का धर्म - प्रभाव दूर - दूर तक व्याप्त था । मतंग ऋषि की बहुत ख्याति थी । वे वेदर्षि थे। राम ने शबरी से कहा - “माता, दनु से तेरे आश्रम की महिमा सुन चुका हूं। अब उसे प्रत्यक्ष देखने की अभिलाषा रखता हूं। शबरी ने कहा - “ हे राम , मेरे गुरुपद के नाम पर इस वन का नाम ही मातंग वन है ।