पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३६५

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97. जगज्जयी का कामवैकल्य असहविक्रम , दुर्धर्ष मारुति के द्वारा अनायास ही लंका का विध्वंस होते तथा मारुति को दुस्तर सागर पारकर आते - जाते देख जगज्जयी महिदेव रावण का तेज जैसे बुझ सा गया । वह क्रोध और शोक से अभिभूत हो गया । कभी किसी चिन्ता को पास न फटकने देने वाले प्रबल , प्रतापी रावण के मन में अकस्मात् ही चोर बैठ गया । उसने यत्नपूर्वक लंका की सुरक्षा की व्यवस्था की । फिर भी वैकल्य से उसका मन भर गया । एक अज्ञात भीति ने उसे चंचल कर दिया । वह सोचने लगा कि सीता का हरण क्या उचित हुआ ? इस दाशरथि से वैर बांधना क्या युक्तियुक्त हुआ ? क्या यह भी संभव है कि वह राजभ्रष्ट मानव राजकुमार इस एक स्त्री के लिए अगम्य लंका तक आने का दु: साहस करे ? क्या उसका ऐसा प्रताप, तेज और शौर्य है कि मेरा साम्मुख्य करने का साहस करे ? क्या उसे परिकर प्राप्त होगा ? साधन मिलेंगे? पर उसने एकाकी ही जनस्थान के चौदह सहस्र राक्षसों का वध कर डाला है और इस धृष्ट वानर ने एकाकी ही अगम्य लंका में आकर मेरे तेज प्रताप के सिर पर लात मार लंका में अग्निदाह किया है। यह सब तो अचिन्त्य है, असम्भाव्य है । परन्तु जो हो , मैं इस शत्रु - पत्नी को छोडूंगा नहीं । ” सीता की याद आते ही सीता की मूर्ति उसके मानस- नेत्रों में आ उपस्थित हई । उसने सोचा - अहा , सीता के समान सुन्दरी स्त्री तो त्रैकोक्य में नहीं है । उस कमलनयनी चन्द्रवदनी सीता को स्मरण करके ही मैं कामदग्ध हो रहा हूं। परन्तु वह मेरी शय्या पर आना ही नहीं चाहती । ऐसी स्त्री तो मैंने कोई देखी ही नहीं; मेरे वैभव का उसे तनिक भी मोह- प्रलोभन नहीं। मेरे प्रताप से वह प्रभावित नहीं । वह तो उस भिखारी राम में ही अतिरंजित है। यह तो मूढ़ता की पराकाष्ठा है । स्त्रियां स्वभाव ही से मूढ़ होती हैं । पर मैं तो उस पर मोहित हूं । कैसे वह मेरी शय्या पर आरोहण करे , कैसे मैं इस कार्य में सिद्धमनोरथ होऊं , समझ में नहीं आता। अहा , उसकी कटि क्षीण है , नितम्ब पुष्ट हैं , शरच्चन्द्र के समान उसका मुख है। स्वर्ण-प्रतिमा के समान वह सौम्य है। वह गजमामिनी सीता तो मायामूर्ति के समान है। उसके रक्तिम नखों से युक्त कोमल और लाल - लाल सुन्दर तलवों वाले चरणों को देखकर तो मेरा मन ही वश में नहीं रहता । अग्निज्वाला और सूर्य की कान्ति के समान देदीप्यमान उसकी सुन्दर नासिका और सुन्दर नेत्रों वाले खिले कमल - से मुख को देख कामज्वर चढ़ता है। यह काम -ताप , जो शोक और क्रोध में भी मुझे नहीं छोड़ता , शरीर को कान्तिहीन और विकृत करके मन को संतापित करके मुझे जलाता जा रहा है। सो कैसे इस तप से मैं पार पाऊंगा ? वह मृगशावक -नयनी जनक राजा की पुत्री क्या मेरे हाथ में आकर भी मेरे हाथ में चढ़ेगी ! मैं जगजयी त्रिलोकपति रावण, देव, दैत्य , दानव , मानव , नाग, यक्ष सभी से पूजित होने के बाद इसी एक मानुषी से तिरस्कृत होऊंगा? नहीं, यह तो असहनीय है । परन्तु अब मुझसे रहा नहीं जाता । अवधि में तो अभी एक मास शेष है । यह कैसे कटेगा ?