105. तुमुल युद्ध रावण ने गर्जना और दुन्दुभि -निनाद सुनकर कहा - “ यह क्या है ? यह महानाद तो मेरे मन में शंका उत्पन्न कर रहा है। वैरी राम-लक्ष्मण तो दोनों ही पुत्र - इन्द्रजित् के शराघात से मरण - शरण हुए थे। फिर अब शोक -काल में यह हर्षनाद कैसा है ? " इसी समय संत्रस्त , दीनमुख, विवर्ण दूतों ने आकर निवेदन किया - “ हे रक्षेन्द्र, वे मायावी मानव फिर से जी उठे हैं । वे सब गुल्मपति भी उठ - उठकर वीरदर्प से नाद कर रहे हैं । महाराज, वानरों के दल - बादल स्वर्ण-लंका पर आक्रमण करने के लिए नये उत्साह से व्यूह- बद्ध हो रहे हैं । गरुड़ ने उन्हें विशल्य किया है, उन्हें अगद किया है। " रक्षपति रावण दूतों से यह सुनकर चिन्ता और क्रोध से विवर्ण हो गया । वह भग्नदर्प, व्यथितेन्द्रिय अभिभूत - सा हो स्वर्णासन पर बहुत देर तक विमूढ़ बैठा रहा । फिर उसने शोक - संतप्त होकर कहा - “ यह तो बड़ी ही अद्भुत बात है कि क्षुद्र मानव भी महेन्द्र के समान युद्ध करते हैं । देव , दानव, यक्ष, नाग से अवध्य होने पर भी इस मानव से मुझे भय उपस्थित हो गया है । ऐसा तो कभी सुना ही न था । वे अग्नि के समान देदीप्यमान बाण अब व्यर्थ हो रहे हैं । अब तो लंका पर संकट का भय उपस्थित हो गया - सा दीख रहा है। " रावण के ऐसे कातर वचन सुनकर वीरेन्द्र त्रिशिरा ने कहा - “जगदीश्वर , आप तो त्रिभुवन के स्वामी हैं । फिर क्यों ऐसा विषाद करते हैं ? आप निश्चिन्त रहें , मैं रणांगण में जाता हूं । देखूगा कि वह राम कितना बल रखता है । " त्रिशिरा के वचन सुन रावण उदग्र होकर हुंकृति करता हुआ बोला – “जाओ, मेरे सब शक्र -पराक्रम पुत्र जाएं और उस भिखारी राम को बांधकर मेरे सम्मुख ले आएं । आज मेरे रसोइए मेरे लिए उसी वैरी का मांस पकाएं । ” यह कहकर उसने रत्नाभरणों से पुत्रों को पुरस्कृत किया , आशीर्वाद दिया और वे रावण की प्रदक्षिणा कर , अभिवादन कर , रथों में बैठ रणांगण की ओर चले । मरेंगे या मारेंगे, यही उनका दृढ़ निश्चय था । वानर - सैन्य भी व्यूह -बद्ध सन्नद्ध खड़ी थी । आमना - सामना होते ही तुमुल घमासान आरम्भ हो गया । देखते ही देखते भूमि रक्त से भर गई। अभी पूरा सूर्योदय भी नहीं हुआ था । पहले धूम्राक्ष अपने सात गुल्म लेकर समरांगण में उतरा । धूम्राक्ष अजेय योद्धा था । उसकी सेना में मंजे हुए सैनिक थे। वे सब परिघ , पट्टिश, शूल , दण्ड , धनुष , बाण, परशु , शक्ति , मुद्र , भिन्दिपाल, पाश लेकर हाथियों , रथों पर चढ़ , व्यूह बना , बरसाती नदी की वेगवती धारा के समान वानरी सैन्य में घुस गए । सबके बीच में स्वर्ण- कवच पहने , मणिमाल कण्ठ में डाले , अमितविक्रम धूम्राक्ष रथ में बैठकर चला , जिसमें छ: अश्वतरी जुती थीं । दस भारवाही शकट उसके साथ बाणों से लदी चलीं । उसकी रथ - ध्वजा पर गिद्ध की मूर्ति बनी थी । धूम्राक्ष की विजयवाहिनी को इस प्रकार वेग से आता देख मारुति ने मोर्चा
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