पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३९०

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पहुंचा, जहां कुमुद, नल और मैन्द राक्षसों का दलन कर रहे थे। उसने कहा - “ अरे सारथि , हमारा रथ तनिक यहां रोक। मैं पहले इन दुर्मद वानरों का हनन करूं । ” इतना कह उसने इन तीनों यूथपतियों को बाणों से छलनी कर दिया । अपने तीन गुल्मपतियों पर संकट देख हनुमान् हुंकार भरकर आगे बढ़े और उन्होंने त्रिशिरा के रथ को हठात् रोक वज्रगदा से तत्काल ही घोड़ों को मार डाला। त्रिशिरा रथ से कूद पड़ा । दोनों वीरों में प्रथम गदा - युद्ध, फिर असि - युद्ध हुआ। अन्त में त्रिशिरा क्षत -विक्षत हो रक्त वमन करता हुआ भूमि पर गिर गया । अमित पराक्रमी हनुमन्त को वानरों ने हर्षोल्लास से अभिनन्दित किया । उसने पांच दिन युद्ध किया । अब क्रोधान्ध हो दुराधर्ष देवान्तक और नरान्तक अचिष्मती नाम की लौह गदा ले वेग से वानरों की सेना में घुस पड़े । उनकी गदा की मार से वज्राहत शैल की भांति अनगिनत वानर मर - मरकर भूमि पर गिरने लगे । भय से वानरों की आंखें फट गईं, शरीर कांपने लगा , साहस टूट गया । इसी समय देव - दानव - दर्प -भंजक, महातेज अतिकाय सूर्य के समान देदीप्यमान रथ पर चढ़ आगे आया , उसे देखते ही वानर चीत्कार करके भागने लगे । इस अतिकाय को कालमेघ के समान रथ पर बैठे , गर्जन करते हुए काकुत्स्थ राम ने दूर से देखा। उन्होंने आश्चर्य से विभीषण से पूछा - “ कोऽसौ धनुष्मान् हयशतेन युक्ते स्यन्दने स्थित : पर्वतसकाश: ? ” विभीषण ने कहा - “ एषोऽतिकायो रावणानुज - सुतः देवदानवदर्पहा। " अतिकाय ने वानरों से युद्ध नहीं किया । वह रथ को आगे बढ़ा वहां पहुंचा, जहां राम- लक्ष्मण थे। उसने पुकारकर कहा - "रथस्थितोऽहम् , न प्राकृत कञ्चन योधयामि । यस्यास्ति शक्तिर्ददातु मेऽद्य युद्धम्! ” इस पर क्रुद्ध होकर सौमित्र लक्ष्मण तुरन्त उसके सम्मुख आ अपना नाम कह धनुष टंकार करने लगे । सौमित्र के धनुष की टंकार सुन उन्हें आगे बढ़ते देख , महाबली अतिकाय ने धनुष पर बाण चढ़ाते हुए कहा - “ रे सौमित्रे , बालस्त्वमसि , गच्छ- गच्छ , किं कालसंकाशं मां योधयितुमिच्छसि ? " सौमित्र ने हंसकर कहा - “ आत्मानं कर्मणा सूचय , न विकथितुमर्हसि । यो पौरुषेण युक्तस्स तु शूर इति । ” सौमित्र के वचन सुन अतिकाय ने क्रुद्ध हो लक्ष्मण पर आशीविष बाणों की अविरल वर्षा कर उन्हें ढांप लिया , परन्तु लक्ष्मण ने उन्हें अर्धचन्द्र से काट डाला । अब अतिकाय ने खीझकर पांच बाण एक ही साथ मारे । लक्ष्मण ने उन्हें काटकर घोर ज्वलित ब्रह्मास्त्र को मन्त्रपूत कर अतिकाय पर छोड़ा । वह महाग्नि - दीप्त महास्त्र कालदण्ड के समान अतिकाय के आयुधों को छिन्न -भिन्न कर उसके किरीटजुष्ट सिर में जा लगा, जिससे उसका सिर शिरस्त्राण - सहित हिमवंत श्रृंग की भांति सहसा भूमि पर आ गिरा । दुर्जय महाकाय को इस प्रकार छिन्नमस्तक भूमि पर गिरते देख , राक्षस हाहाकार करते चारों ओर भाग चले । उन भागते हुओं को उदग्रवीर्य वानरों ने उछल - उछलकर और दबोचकर पीस डाला। जो जीवित बच रहे, लंका पहुंच रक्षराज के सम्मुख आ , भूपतित हो रुदन करने लगे। इस प्रकार सोलह दिन राक्षस सेनानायकों ने घोर युद्ध किया ।