पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३९२

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वीर दशानन के ऐसे कातर वचन सुनकर मन्त्रियों ने कहा - “ महाराज, अब हमें राक्षसों के रक्षक महातेज कुम्भकर्ण की सहायता लेनी चाहिए। वह हमसे खिन्न और उदासीन हो अपनी रत्नगुहा में कूटस्थ जा बैठे हैं । सो यह काल कूटस्थ होकर बैठने का नहीं है , वीर्य - प्रदर्शन करने का है। आज राक्षस - जाति के सम्मुख कुलक्षय का संकट समुपस्थित है , यह जानकर महातेज कुम्भकर्ण उदासीन नहीं रह सकते । वे हमसे क्रुद्ध होकर भी रक्षेन्द्र विभीषण की भांति वैरी राम के शरणापन्न नहीं हुए । इससे उनका हमारे प्रति प्रेम और आपके प्रति सौहार्द प्रकट है। फिर वे आपके सहोदर हैं । उन्होंने अपने प्रबल प्रताप से देव दैत्य जय किए हैं । कौन ऐसा वीर्यवान् पुरुष संसार में है, जो सम्मुख समर में महातेज तपस्वी कुम्भकर्ण का सामना कर सके ? महाराज , आप हमारे – सब राक्षसों के स्वामी हैं । आप जगदीश्वर हैं , पृथ्वीपति हैं , महातेज के ज्येष्ठ भ्राता हैं । सो मंत्रियों सहित आप जब उनके पास पहुंचेंगे, तो उनका क्रोध विगलित हो जाएगा । वे शस्त्रपाणि हो समर - भूमि में जाएंगे। उनके समरांगण में जाते ही हमारी पराजय जय में बदल जाएगी । उनके महत् तेजाश्रय हो , हम सब राक्षस वीर बात की बात में इन क्षुद्र वानरों को काट डालेंगे। हमारा तो यही मत है, आगे देव प्रमाण हैं ! " मन्त्रियों के ऐसे , हितकर , सारगर्भित , समयोपयोगी वचन सुनकर रावण महातेज कुम्भकर्ण के पास जाने को राजी हो गया । उसने आज्ञा दी – “ ऐसा ही हो , सब कोई कुम्भकर्ण के पास चलें । बहुमूल्य उपानय साथ ले लो । " सौ स्वर्ण- कलश सुगन्धित मदिरा , सौ महिष, बहुत - से स्वर्णखचित वस्त्र और मणि ले महिदेव रावण, भाई कुम्भकर्ण को मनाने मन्त्रियों सहित उनकी रत्नगुहा पहुंचा। भेरी, शंख और मृदंगों का महानाद सुन कुम्भकर्ण रत्नगुहा से बाहर आया। उसने रक्षेन्द्र की प्रदक्षिणा कर उसका पूजन किया , चरणवन्दना की , फिर कहा - “ राजन् , किस अभिप्राय से आपने मेरी एकान्त शान्ति भंग की ? ऐसा क्या विषम संकट आप पर आया ? आप तो स्वयं जगज्जयी, सर्वेश्वर हैं , मुझ मन्दकाम से आपका क्या प्रयोजन है ? " रावण ने भाई का आलिंगन किया , फिर लज्जित- सा होकर कहा - "भ्राता , यह कुलक्षय का संकटकाल रक्ष जाति पर आ उपस्थित हुआ है । सीताहरण से संतप्त राम ने सब प्रमुख राक्षस धनुर्धरों को मार डाला है। एक मास से वह इस प्रकार रक्षकुल को भस्म कर रहा है जैसे दावानल वन को भस्म करता है। अब यह तेरे क्रुद्ध होने का काल नहीं है वीर। तू ही रक्षकुल का रक्षक और मेरी दक्षिण भुजा है। तेरे ही बल से मैं जगज्जयी कहाता हूं। तेरे बल से मैं लंका पर अबाध शासन करता हूं । कुलद्रोही विभीषण ने वैरी का आश्रय ले रक्षकुल को कलुषित किया । अब तू प्रसन्न हो , महातेज कुम्भकर्ण, राक्षसों की डूबती नैया को उबार ले । उस भिखारी दाशरथि से लंका को महाभय उत्पन्न हो गया है । हे वीरबाहु , अब तू ही उस भय से लंका की रक्षा कर सकता है । " । ___ रक्षपति जगज्जयी रावण से ऐसे कातर वचन सुन महातेज कुम्भकर्ण शोक और क्रोध से अभिभूत हो अश्रुपूरित नयनों से हततेज रक्षेन्द्र को देख दु: खी होता हुआ बोला - " राजन्, मैंने तो पहले ही आपसे निवेदन किया था कि शत्रु- पत्नी सीता को लौटा दें । एक स्त्री के लिए राक्षसों के कुल को संकट में मत डालें । पर उस समय आपने अपने हितैषियों की बात पर कान नहीं दिया । आपने परम धर्मज्ञ आज्ञाकारी विभीषण को