हुआ, जिसमें कलिंग नरेश मारा गया और मनोरमा बालक सुदर्शन को लेकर प्रयाग आ भारद्वाज के आश्रम में शरणापन्न हुई । युधाजित् उज्जैनपति ने अपने दौहित्र शत्रुजित् को राजा बना दिया । भारद्वाज के आश्रम में रहकर सुदर्शन बड़ा विद्वान् हो गया । कुछ दिन बाद काशी के राजा सुबाहु की पुत्री शशिकला का स्वयंवर हुआ । शशिकला सुदर्शन का गुण सुन चुकी थी । उस पर मुग्ध थी । उसने चुपके से उसे बुला भेजा। स्वयंवर में युधाजित् , शत्रुजित् , कारुरवपति , भद्रशर, सिंहराज , माहिष्मतीपति , पांचालराज , कामरूप , कर्णाटक , विदर्भ , केरल , चोल आदि के राजा एकत्रित थे। युधाजित् ने आपत्ति की कि सुदर्शन कहीं का मुकुटधारी राजा नहीं है। अत : वह स्वयंवर में सम्मिलित नहीं हो सकता , पर केरल नरेश ने उसका पक्ष लेकर कहा कि वह ध्रुवसिन्धु का बड़ा पुत्र है , अत : माननीय राजपुरुष है । पर युधाजित् ने कड़ा विरोध किया । यह देख अनेक राजा उसके पाण्डित्य और सदाचार को देख सुदर्शन के पक्ष में हो गए । स्वयंवर में शशिकला ने जयमाला भी सुदर्शन ही के कण्ठ में डाली । इस पर युधाजित् और शत्रुजित् युद्ध पर सन्नद्ध हो गए। राजा सुबाहु और सुदर्शन के पक्षवाले राजाओं से युधाजित् और शत्रुजित् की सम्मिलित सैन्य का भारी युद्ध हुआ , जिसमें युधाजित् और शत्रुजित् मारे गए। सुदर्शन शशिकला को ब्याह कर श्रावस्ती के राजा बने । यह वंश महाभारत तक चला । महाभारत - संग्राम में इस वंश का बृहद्वल मारा गया था , परन्तु वह राज्य आगे तक चलता रहा। बुद्धकालीन इतिहास प्रसिद्ध अयोध्या - नरेश प्रसेनजित् इसी वंश में हुए । लक्ष्मण और शत्रुघ्न के पुत्रों के राज्य बहुत जल्दी टूट गए। द्वापर युग में सूर्यवंश दबा रहा। चन्द्रवंश की विशेषता रही । सारे संसार में लव का वंश ही सर्वाधिक काल तक अखण्ड चला। विभीषण ने राक्षस - धर्म त्यागा और आर्य- धर्म में दीक्षित हुए। कृतज्ञता स्वरूप जब राम के पुत्रों का जन्म हुआ तब उसने कुश के नाम पर शिवदानद्वीप का नाम कुशद्वीप रख दिया , जो अब अफ्रीका का महाद्वीप कहाता है । विभीषण ने रावण के सारे अवरोध को अपने अन्त: पुर में दाखिल कर लिया । मन्दोदरी ने भी पुत्र - वधू सुलोचना का अनुसरण न कर कुलद्रोही विभीषण की महिषी बनना स्वीकार कर लिया । परन्तु विभीषण के वंश का प्रताप - सूर्य शीघ्र ही अस्त हो गया । उसके उत्तराधिकारी कमज़ोर रहे । राक्षसों का सारा ही आर्थिक और राजनीतिक ढांचा बिखर चुका था । राक्षसों और दैत्यों के प्रमुख केन्द्र और राज्य नष्ट हो चुके थे। विभीषण कुलघाती था , इससे वह लंका में प्रतिष्ठित न रह सका । राम - युद्ध में प्राय : सभी राक्षस योद्धा मर चुके थे। जो बचे भाग गए । लंका की कला -कौशल , संस्कृति , समृद्धि सब कुछ विलीन हो गई । विलाप करती हुई विधवाएं विभीषण को विष दृष्टि से देखती थीं । लंका में कोई उसका कल्याणकामी न था । थोड़े ही दिन बाद विभीषण की मृत्यु हो गई । उसके बाद लंका राज्य केवल लंका के छोटे - से द्वीप तक सीमित रह गया । राम - रावण के इस महायुद्ध में लगभग सम्पूर्ण दैत्य -दानव , नागवंशी राजा और राजप्रतिनिधि रावण की सहायतार्थ आए थे। रावण सप्तद्वीपपति था , जो उस काल लंका के चारों ओर फैले थे। आज की भौगोलिक स्थिति यद्यपि बदल चुकी है, परन्तु वे द्वीप आज आस्ट्रेलिया, जावा , सुमात्रा, मेडागास्कर , अफ्रीका आदि नाम से प्रसिद्ध हैं । ऐसे प्रबल शत्रु को मारना आसान न था । तिमिरध्वज शम्बर और वर्चिन की समाप्ति के बाद रावण का यह
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