दैत्य अकम्पन की चर्मरज्जु के कड़े आघात शपाशप अश्वतरी की पीठों पर पड़ रहे थे, जिनसे प्रताड़ित हो उनके खुर जैसे भू -स्पर्श छोड़ वायु में अधर उड़े चले जा रहे थे। अर्जना का तट आया । तट पर एक सघन मनोरम वन था । वन में अनेक ताल , तमाल, हिन्ताल के वृक्ष थे, हरिण थे, पक्षी थे, उनका कलरव था । स्थान- स्थान पर वहां इस समय अग्निदाह हो रहा था । कुछ हाथ- पैर - गर्दन कटे शव पड़े थे। स्त्रियों के शंखचूड़ , गुंजामाल, वस्त्रखण्ड, स्वर्णवलय टूटे- फूटे इधर - उधर पड़े थे। टूटे हुए शक्ति , परशु , खड्ग और मरे - अधमरे पशु सिसक रहे थे। रावण ने रथ से उतरकर देखा । उसने कहा - “मातुल , यहाँ तो विकट संग्राम हुआ प्रतीत होता है । सभी शव गर्म हैं । युद्ध सम्भवत : अभी हुआ है । देखो तो , कोई जीवित पुरुष भी है जिससे घटना का ज्ञान हो । " अकम्पन ने बारीकी से देखा । एक बूढ़े असुर में अभी प्राण थे। उसी ने टूटे - फूटे स्वर में बताया कि दानवों के एक दल ने आक्रमण करके उनका ग्राम - गोत्र लूट लिया है । ग्राम का सब स्वर्ण , अन्न और स्त्रियाँ वे लूट ले गए हैं तथा सब जीवित पुरुषों को बांधकर बन्दी बना ले गए हैं । दैत्य ने बताया - “ वे दक्षिण दिशा में समुद्रतीर- तीर गए हैं । " रावण ने हुंकृति भरी। रथ पर खड़े होकर दक्षिण दिशा की ओर देखा। उसने उसी दिशा की ओर परशु उठाकर कहा - “ चलो तो मातुल ! देखो , वह धूल उठ रही है। " और अश्वतरियां उसी दिशा में उड़ चलीं । अधीर होकर रावण रथ पर खड़ा होकर व्यग्र भाव से उधर देखने लगा। देखते - देखते धूल का बवंडर निकट होता गया । थोड़ी ही देर में देखा - दानवों का एक सम्पन्न संगठित दल सब दैत्यों , स्त्री - पुरुषों को रस्सियों में बाँधे , उनका अन्न -स्वर्ण गठरियों में लादे, उनका पशु- धन आगे कर परिघ , शूल , कृपाण, शक्ति , खड्ग हवा में उछालता वन के गहनतम प्रदेश में बढ़ता जा रहा है । आगे बढ़कर रावण ने ललकारा। साथ ही उसने दश बाण दस -दस टंक के छोड़े । बाणविद्ध होकर दानवदल घूमा । उन्होंने देखा - एक दुर्धर्ष तरुण योद्धा दिव्य रथ पर आरूढ़ धंसा चला आ रहा है । दलपति ने दानवों को तुरन्त व्यूहबद्ध खड़े होने की आज्ञा दी । बन्दियों और आहतों को दूर खड़ा किया । पलटकर उसने पुकारकर कहा - “ यह अकारण हम पर आक्रमण करके वैर करने वाला महाभाग कौन है ? इस अकारण के वैर का कारण क्या है ? वह कहे कि हम उसका बाणों से सत्कार करें , या मधुपर्क से ? " रावण ने कहा - “ मैं रक्षाधिप वैश्रवण रावण हूं इन सब द्वीप समूहों का स्वामी ! तुमने मेरे द्वीप पर अनाचार किया है। कहो तुम्हारा ग्राम , गोत्र कहां है ? " _ " इसी द्वीप के उस ओर हमारा द्वीप है और गोत्र भी है । परन्तु तुम कैसे इस द्वीप के स्वामी हो ? द्वीप का अधिपति वज्रनाभ है। वह हमारा मित्र है। " "वज्रनाभ का सिर इसी परशु से मैंने गत रात्रि काटकर द्वीप पर अपना अधिकार किया है। सो अब तक तुमने यदि राक्षसपति रावण दशग्रीव का नाम न सुना हो , तो अब सुनो , और जान लो , कि आज से यह बाली द्वीप रक्ष - संस्कृति के अधीन है । हम राक्षस इसके अधीश्वर हैं । जो कोई हमसे सहमत है, उसे अभय! जो सहमत नहीं है, उसका इसी परशु से , इसी क्षण शिरच्छेद होगा ! "
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