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वरदान
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लने लगे। राधा भी जान पर खेल गया और तीन दुष्टों को बेकाम कर दिया। इतने में काशी भर ने आकर एक मुगलिये की ख़बर ली। दिहलूराय को मुगलियों से चिढ़ है। साभिमान कहा करते हैं कि मैंने इनके इतने रुपये डुबा दिये, इतनों को पिटवा दिया कि जिसका हिसाब नहीं। यह कोलाहल सुनते हो वे भी पहुँच गये। फिर तो सैकड़ों मनुष्य लाठियाँ ले लेकर दौड़ पड़े। उन्होंने मुगलियों की भली-भाँति सेवा की। आशा है कि इधर आने का अब उन्हें साहस न होगा।

अब तो मई का मास भी बीत गया। क्या अभी छुट्टी नहीं हुई? रात दिन तुम्हारे आने की प्रतीक्षा है। नगर में बीमारी कम हो गयी है। हम लोग बहुत शीघ्र यहाँ से चले जायेंगे। शोक! तुम इस गाँव की सैर न कर सकोगे।

तुम्हारी,
विरजन'

 

 

[१८]
प्रतापचन्द्र और कमलाचरण

प्रतापचन्द्र को प्रयाग कालेज में पढ़ते तीन साल हो चुके थे। इतने काल में उसने अपने सहपाठियों और गुरुजनों की दृष्टि में विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली थी। कालेज के जीवन का कोई ऐसा अंग न था जहाँ उसकी प्रतिभा न प्रदर्शित हुई हो। प्रोफेसर उस पर अभिमान करते और छात्रगण उसे अपना नेता समझते हैं। जिस प्रकार क्रीड़ा-क्षेत्र में उसका हस्तलाघव प्रशंसनीय था, उसी प्रकार व्याख्यान-भवन में उसकी योग्यता और सूक्ष्म दर्शिता प्रमाणित थी। कालेज से सम्बद्ध एक मित्र-सभा स्थापित की गई थी। नगर के साधारण सभ्य जन, कालेज के प्रोफेसर और छात्रगण सब उसके सभासद थे। प्रताप इस सभा का उज्वल चन्द्र था। यहाँ दैशिक और सामाजिक विषयों पर विचार हुआ करते थे। प्रताप की