पर आश्चर्य हो रहा है।
प्राण०―चलो, एक पत्र लिखकर अभी आता हूॅ।
सेवती―अब यही मुझे अच्छा नहीं लगता। मैं आके पत्र नोच डालूँगी।
सेवती प्राणनाथ को घसीटे ले आयी। वे अभी तक यही जानते थे कि विरजन ने कोई सामान्य भजन बनाया होगा। उसी को सुनाने के लिए व्याकुल हो रही होगी। पर जब भीतर आकर बैठे और विरजन ने लजाते हुए अपनी भावपूर्ण कविता 'प्रेम की मतवाली' पढनी आरम्भ की तो महाशय के नेत्र खुल गये। पद्य क्या था, हृदय के दुःख की एक धारा और प्रेम हस्य की एक कथा थी। वह सुनते थे और मुग्ध होकर झूमते थे। शब्दों की एक एक योजना पर, भावों के एक एक उद्गार पर लहालोट हुए जाते थे। उन्होंने बहुतेरे कवियों के काव्य देखे थे, पर यह उच्च विचार यह नूतनता, यह भावोत्करशर्ष कहीं दीख न पड़ा था। वह समय चित्रित हो रहा था जब अरुणोदय के पूर्व मलयानिल लहराता हुआ चलता है, कलियाॅ विकसित होती है, फूल महकते है और आकाश पर हलकी लालिमा छा जाती है। एक-एक शब्द में नवविकसित: पुष्पों की शोभा और हिमकरणो की शीतलता विद्यमान भी। उस पर विरजन का सुरीलापन और ध्वनि की मधुरता सोने में सुगन्ध थी। ये वे छन्द थे, जिन पर विरजन ने हृदय को दीपक की भाँति जलाया था। प्राणनाथ प्रहसन के उद्देश्य से आये थे। पर जब वे उठे हैं तो वस्तुतः ऐसा प्रतीत होता था, मानो छाती से हृदय निकल गया है। एक दिन उन्होंने विरजन से कक्ष― यदि तुम्हारी कविताएँ छपें, तो उनका बहुत आदर हो।
विरजन ने सिर नीचा करके कहा―मुझे विश्वास नहीं कि कोई इनको पसन्द करेगा।'
प्राणनाथ―ऐसा संभव ही नहीं, यदि हृदयों में कुछ भी रसिकता है तो तुम्हारे काव्य को अवश्य प्रतिष्ठा होगी यदि ऐसे लोग विधमान है, जो