१३६ माधवी माधवी के प्रमानल से पत्थर भी पिघल गया । जब वह प्रेमविह्वल होकर प्रताप के वालपन की बातें पूछने लगती तो सुवामा से न रहा जाता। उसकी श्रॉखों में जल भर पाता। तब दोनों-की-दोनों रोती और दिन-दिन भर प्रताप की बातें समाप्त न होतीं। क्या अब माधवी के चिच की दशा सुवामा से छिप सकती यी १ वह बहुधा सोचती कि क्या यह तपस्विनी इसी प्रकार प्रमामि मे जलती रहेगी और वह भी बिना किसी श्राशा के ? एक दिन वृजरानी ने 'कमला का पैकेट खोला, तो पहले ही पृष्ट पर एक परम प्रतिमा-पूर्ण चित्र, विविध रङ्गों में दिखायी पड़ा । यह किसी महात्मा का चित्र था। उसे ध्यान पाया कि मैने इन महात्मा को कहीं अवश्य देखा है । सोचते-सोचते अकस्मात् उसका ध्यान प्रतापचन्द्र तक जा पहुंचा। यानन्द के उमंग में उछल पड़ी और बोली-माधवी, तनिक यहाँ अाना। माधवी फूलों की क्यारियाँ सीच रही थी। उसके चित्त-विनोद का आजकल यही कार्य था । वह साड़ी पानी में लथपथ, सिर के बाल विखरे माथे पर पसीने के विन्दु और नेत्रों में प्रेम का रस भरे हुए आकर खड़ो हो गयी । विरजन ने कहा-श्रा, तुझे एक चित्र दिखाऊँ । माधवी ने कहा-किसका चित्र है, देखू ? माधवी ने चित्र को ध्यानपूर्वक देखा । उसकी आँखों मे आँसू श्रा गये। विरजन-पहचान गयी ? माधवी-क्यों ? यह स्वरूप तो कई वार स्वप्न में देख चुकी हूँ! वदन से कान्ति बरस रही है। विरजन-देखो, वृचान्त भी लिखा है। माधवी ने दूसरा पन्ना उलया तो 'स्वामी वालाजी' शीर्षक लेख मिला। योड़ी देर तक दोनों तन्मय होकर यह लेख पढ़ती रहीं, तब बात-चीत होने लगी।
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