सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:वरदान.djvu/१७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
वरदान
१६०
 

कमरा अधिक प्रकाशित हो गया था और प्रकाश खिड़कियों से बाहर निकलकर आँगन में फैल रहा था। माधवी के पाँव-तले से मिट्टी निकल गयी। ध्यान आया कि मेज पर लैम्प भभक उठा। वायु की भाँति वह बालाजी के कमरे में घुसी। देखा तो लैम्प फटकर पृथ्वी पर गिर पड़ा है और भूतल के विछाक्न में तेल फैल जाने के कारण आग लग गयी है। दूसरे किनारे पर बालाजी सुख से सो रहे थे। अभी तक उनकी निद्रा न खुली थी। उन्होंने कालीन समेटकर एक कोने मे रख दिया था। विद्युत् की भाँति लपककर माधवी ने वह कालीन उठा लिया और भभक्ती हुई ज्वाला के ऊपर गिरा दिया। धमाके का शब्द हुआ तो बालाजी ने चौक कर आँखें खोलीं। घर मे धुआँ भरा हुआ था और चतुर्दिक् तेल की दुर्गन्ध फैली हुई थी इसका कारण वह समझ गये। बोले-कुशल हुआ। नहीं तो कमरे में आग लग गयी थी।

माधवी―जी हाँ! यह लैम्प गिर पड़ा था।

बालाजी―तुम बड़े अवसर पर आ पहुँची।

माधवी―मैं यहीं बाहर बैठी हुई थी।

बालाजी―तुमको बड़ा कष्ट हुआ। अब जाकर शयन करो। रात बहुत आ गयी है।

माधवी―चली जाऊँगी। शयन तो नित्य ही करना है। यह अवसर न-जाने फिर कब आये?

माधवी की बातों में अपूर्ण करुणा भरी थी। बालाजी ने उसकी ओर ध्यान -पूर्वक देखा। जब उन्होंने पहिले माधवी को देखा था, उस समय वह एक खिलती हुई कली थी और आज़ वह एक मुरझाया हुआ पुष्प है। न मुख पर सौन्दर्य था, न नेत्रों में आनन्द की झलक, न माँग मे सोहाग का संचार था, न माथे में सिन्दूर का टीका। शरीर में आभूषणों का चिह्न भी न था। बालाजी ने अनुमान से जाना कि विधाता ने ठीक तरुणावस्था में, इस दुखिया का सोहाग हरण किया है। परम उदास