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वरदान
२०
 

विरजन―किसी से कहोगी तो नहीं?

सुवामा―नहीं,किसी से न कहूँगी।

विरजन―सोचती थी कि जब प्रताप से मेरा विवाह हो जायगा, तब बड़े आनन्द से रहूँगी।

सुवामा ने उसे छाती से लगा लिया और कहा―‘बेटी, वह तो तेरा भाई है।'

विरजन―हाँ,भाई है। मैं जान गयी। तुम मुझे बहू न बनायोगी।

सुवामा-आज लल्लू को आने दो,उससे पूछूँ; देखू, क्या कहता है?

विरजन―नहीं-नहीं,उनसे न कहना; मैं तुम्हारे पैरों पड़ूँ।

सुवामा―मैं तो कह दूँगी।

विरनन―तुम्हें हमारी कसम,उनको न कहना।

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[ ५ ]

शिष्ट जीवन के द्दश्य

दिन जाते देर नहीं लगती। दो वर्ष व्यतीत हो गये। पण्डित मोटे राम नित प्रात काल आते और सिद्धान्त-कौमुदी पढाते,परन्तु अब उनका आना केवल नियम पालने के हेतु ही था; क्योंकि इस पुस्तक के पढने में अब विरजन का जी न लगता था। एक दिन मुन्शीजी इजीनियर के टफ्तर से आये। कमरे में बैठे थे। नौकर जूते का फीता खोल रहा था कि रधिया महरी मुसकराती हुई घर में से निक्ली और उनके हाथ में मुहर छाप लगा हुआ लिफाफा रख,मुख फेर हँसने लगी। श्रीनाम पर लिखा हुआ था― ‘श्रीमान् बाबा साहब की सेवा में प्राप्त हो।’

मुन्शी―अरे,तू किसका लिफाफा ले आयी? यह मेरा नहीं है।

महरी―सरकार ही का तो है,खोलें तो आप।

मुन्शी―क्सिने दिया? कोई आदमी बाहर से आया था?