सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:वरदान.djvu/३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
वरदान
 

माता! मैंने सैकड़ों व्रत रखे,देवताओं की उपासनाएँ की,तीर्थयात्राएँ की,परन्तु मनोरथ पूरा न हुश्रा। तब तुम्हारी शरण श्रायी। अब तुम्हें छोड़कर कहां जाऊँ? तुमने सदा अपने भक्तों की इच्छाएं पूरी की हैं। क्या मैं तुम्हारे दरवार से निराश हो नाऊँ?'

सुवामा इसी प्रकार देर तक विनती करती रही। अकस्मात् उसके चित्त पर अचेत करनेवाले अनुराग का श्राक्रमण हुअा। उसकी आँखें बन्ट हो गयीं और कान में ध्वनि आयी----- 'सुवामा! मैं तुझसे बहुत प्रसन्न हूँ। मांग,क्या मांगती है?'

सुवामा रोमाञ्चित हो गयी।उसका हृदय धड़कने लगा। आन बीस वर्ष के पश्चात् महारानी ने उसे दर्शन दिये। वह कांपती हुई बोली'वो कुछ मांगूंगी,वह महारानी देंगी?'

'हां, मिलेगा।

'मैने बड़ी तपस्या की है;अतएव वड़ा भारी वरदान मांगूंगी।'

'क्या लेगी?कुवेर का धन?

'नहीं।'

'इन्द्र का बल?

'नहीं।

'सरस्वती की विद्या?

'नहीं।'

'फिर क्या लेगी?

'संसार का सबसे उत्तम पदार्थ।

'यह क्या है ?

'सप्त वेग।

'वो कुल का नाम रोशरे?

'नहीं।

'जो माता-पिता की सेवा करे!