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पृष्ठ:वरदान.djvu/३१

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वरदान
३२
 


पट्टा चला है तो इसकी उठी हुई गर्दन,मतवाली चाल और गठीलेपन पर लोग धन्य-धन्य करने लगे। नाते-ही-जाते इसने उसका टेटुवा लिया। परन्तु वह भी केवल फूला हुआ न था। सारे नगर के बुलबुलों को परा-जित किये बैठा था। बलपूर्वक लात चलायी। इसने बार-बार बचाया और फिर झपटकर उसकी चोटी वायी। उसने फिर चोट की। यह नीचे श्राया,चतुर्दिक कोलाहल मच गया-मार लिया,मार लिया। तब तो मुझे भी क्रोध आया,डपटकर जो ललकारता हूँ तो यह ऊपर और वह नीचे दवा हुया है। फिर तो उसने कितना ही सिर पटका कि ऊपर आ जाय,परन्तु इस शेर ने ऐसा दावा कि सिर न उठाने दिया। नवान साहव स्वय उपस्थित थे। बहुत चिल्लाये,पर क्या हो सकता है? इसने उसे ऐसा दबोचा था जैसे बाज़ चिड़िया को,श्राविर वागटुट भागा। इसने पाली के उस पार तक पीछा किया,पर न पा सका। लोग विस्मय से दग हो गये। नवाब साहब का तो मुख मलिन हो गया । हवाइयाँ उड़ने लगीं। रुपए हारने की तो उन्हें कुछ चिन्ता नहीं, क्योकि लाखों की श्राय है;परन्तु नगर मे जो उनकी धाक बंधी हुई थी,वह जाती रही। रोते हुए घर को सिधारे। सुनता हूँ, यहाँ से जाते ही उन्होंने अपने बुलबुल को नीवित ही गाड़ दिया। यह कहकर कमलाचरण ने जेब खनखनायी।

सेवती-तो फिर खड़े क्या कर रहे हो १ आगरे वाले की दूकान पर आदमी भेजो।

क्मला-तुम्हारे लिये क्या लाऊँ,भामी?

सेवती-दूध के कुल्हड़।

क्मला--और भैया के लिए?

सेवती-दो-टो लुगाईयो।

यह कहकर टोनों ठट्ठा मारकर हँसने लगे।