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ईर्ष्या
 

करूँगी। जामाता मुझे माता कहेगा, मै उसे लड़का समझूँगी। जिस हृदय मे ऐसे मनोरथ हों, उस पर ऐसी दारुण और हृदयविटारिणी वातों का जो कुछ प्रभाव पड़ेगा, प्रकट है। हा! हन्त !! दीना सुशीला के तारे मनोरथ मिट्टी में मिल गये । उसकी सारी श्राशाओं पर श्रोस पड़ गयी। क्या सोचती थी और क्या हो गया। अपने मन को बार-बार समझाती कि अभी क्या है। जब कमला सयाना हो जायेगा तो सब बुराइयाँ स्वय त्याग देगा। पर एक निन्दा का घाव भरने नहीं पाता था कि फिर कोई नवीन घटना सुनने मे या जाती। इसी प्रकार श्राघात-पर-श्राघात पड़ते गये। हाय ! नहीं मालूम विरजन के भाग्य में क्या बदा है ? क्या यह गुन की मूर्ति, मेरे घर की दीप्ति, मेरे शरीर का प्राण इसी दुष्प्रकृति-मनुष्य के सग जीवन व्यतीत करेगी ? क्या मेरी श्यामा इसी गिद्ध के पाले पड़ेगी १ यह सोचकर सुशीला रोने लगती और धण्टों रोती । पहिले बिरजन को कभी-कभी डांट-डपट भी दिया करती थी। अब भूलकर भी कोई बात न कहती। उसका मुंह देखते ही उसे वाद या जाती। एक क्षण के लिए भी उसे सामने से अदृश्य न होने देती। यदि जरा देर के लिए यह सुवामा के घर चली नाती, तो स्वय पहुँच जाती। उसे ऐमा प्रतीत होता मानो कोई उसे छीनकर ले भागता है। जिस प्रकार वधिक की छुरी के तले अपने बछड़े को देखकर गाय का रोम-रोम कांपने लगता है, उसी प्रकार विरजन के दुःख पा ध्यान कर के सुशीला की आँखों में ससार सूना जान पडता था। इन दिनो विरजन को पल-भर के लिए नेत्रों से दूर करते उसे वह कष्ट और व्याकुलता होती थी, जो चिड़िया को घोंसले से बच्चों के खो जाने पर होती है। सुशोला एक तो यों ही जीणं रोगिणी थी। उस पर भविष्य की असाध्य चिन्ता और जलन ने उसे और भी घुला डाला। निन्दायां ने कलेना चलनी कर डाला। छ मास भी न बीतने पाये थे कि क्षयरोग के चिह्न दिखायी देने लगे। प्रथम तो कुछ दिनों तक साहस करके अपने दुःख को