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वैरागय
 

अस्सी वरस के वृद्ध―जिनके लिए वर्षों से उठना कठिन हो रहा था ―लॅगड़ाते, लाठियां टेकते मञ्जिलें तै करके प्रयागराज को जा रहे थे। बड़े -बड़े साधु-महात्मा―जिनके दर्शनों की इच्छा लोगों को हिमालय की अंधेरी गुफाओं में खींच ले नाती, थी―उस समय गंगाजी की पवित्र तरंगों से गले मिलने के लिए आये हुए थे। मुंशी शालिग्राम का भी मन ललचाया सुवामा से बोले―'कल स्नान है।'

सुवामा―सारा महल्ला सूना हो गया। कोई मनुष्य नहीं दीखता।

मुशी―तुम चलना स्वीकार नहीं करतीं, नहीं तो बड़ा आनन्द होता। ऐसा मेला तुमने कभी नहीं देखा होगा।

सुवामा―ऐसे मेलों से मेरा जी घबराता है।

मुशी―मेरा तो जी नहीं मानता। जबसे सुना कि स्वामी परमानन्दजी आये हैं, तबसे उनके दर्शन के लिए चित्त उद्विग्न हो रहा है।

सुवामा पहले तो उनके जाने पर सहमत न हुई, पर जब देखा कि यह रोके न रुकेंगे, तब विवश होकर मान गयी। उसी दिन मुंशीजी ग्यारह बजे रात को प्रयागराज चले गये। चलते समय उन्होंने प्रताप के मुख का चुम्बन किया और स्त्री को प्रेम से गले लगा लिया। सुवामा ने उस समय देखा कि उनके नेत्र सजल है। उसका कलेचा धक्-से हो गया। जैसे चैत्र मास में काली-काली घटाओं को देखकर कृषक का हृदय काँपने लगता है, उसी भांति मुंशीजी के नेत्रों को अश्रुपूर्ण देखकर सुवामा कम्पित हुई, अश्रु की वे बूंदें वैराग्य और त्याग का अगाध समुद्र थीं। देखने में वे जैसे नन्हें जल के कण थी, पर थीं वे कितनी गम्भीर और वित्तीर्ण!

उधर मुन्शीजी घर से बाहर निकले और इघर सुवामा ने एक ठण्डी श्वास ली। किसी ने उसके हृदय में यह कहा कि अब तुझे अपने पति के दर्शन न होंगे। एक दिन बीता, दो दिन बीते, चौथा दिन आया और गत हो गया, यहाँ तक कि पूरा सप्ताह बीत गया, पर मुन्शीजी न आये। तब तो सुवामा को आकुलता होने लगी। तार दिये। आदमी दौड़ाये, पर