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पृष्ठ:वरदान.djvu/६२

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कमलाचरण के मित्र
 

मजीद―क्यों भाई कमलाचरण, सच कहना, स्त्री को देखकर जी खुश हो गया कि नहीं?

कमला―अब आप बहकने लगे, क्यों?

रामसेवक―बतला क्यों नहीं देते, इसमें झेंपने की कौन-सी बात है?

कमला―बतला क्या अपना सिर दूँ, कभी सामने जाने का संयोग भी तो हुआ हो। कल किवाड़ की दरार से एकबार देख लिया था, अभी तक चित्र आँखों पर फिर रहा है।

चन्दूलाल―मित्र, तुम बड़े भाग्यवान हो।

कमला―ऐसा व्याकुल हुआ कि गिरते-गिरते बचा। बस, परी समझ लो।

मजीद―तो भई, यह दोस्ती किस दिन काम आयेगी। एक नज़र हमें भी दिखाओ।

सैयद―वेशक दोस्ती के यही मानी हैं कि आपस में कोई पर्दा न रहे।

चन्दूलाल―दोस्ती में क्या पर्दा? अग्रेज़ों को देखो, बीबी डोली से उतरी नहीं कि यार-दोस्त हाथ मिलाने लगे।

रामसेवक―मुझे तो बिना देखे चैन न आयेगा।

कमला―(एक धप लगाकर) जीभ काट ली जायगी, समझे?

रामसेवक―कोई चिन्ता नहीं, आँखें तो देखने को रहेंगी।

मजीद―भई कमलाचरण, बुरा मानने की बात नहीं, अब इस वक्त तुम्हारा फर्ज है कि दोस्तों की फरमाईश पूरी करो।

कमला―अरे! तो मैं ‘नहीं' कब करता हूँ ?

चन्दूलाल―वाह मेरे शेर! ये ही मदों की-सी बाते हैं। तो हम लोग बन-टनकर आ जायँ, क्यों?

कमला―जी, ज़रा मुँह में कालिख लगा लीजिएगा। बस, इतना बहुत है।

सैयद―तो आज ही ठहरी न?