पृष्ठ:विक्रमांकदेवचरितचर्चा.djvu/१५

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यशोवतंसं नगरं सुराणां कुर्वन्नगर्वः समरोत्सवेषु।
न्यस्तां स्वहस्तेन पुरन्दरस्य य: पारिजातस्रजमाससाद॥

सर्ग १, पद्य ८६।

लीजिए पारिजात की माला जयसिंह के गले में पड़ गई। विक्रमाङ्कदेव के आश्रय में रह कर उसकी और उसके वंशजों की स्तुति करना कवि का धर्म्म था, यह हमने माना, परन्तु फिर भी योग्यायोग्य का विचार करना भी उचित था। नितान्त असम्भव बातों का ऐतिहासिक काव्यों में न वर्णन करना ही अच्छा था। बात यह है कि, जिस दृष्टि से हम लोग इन काव्यों को अब देखते हैं उस दृष्टि से उस समय लोग न देखते थे। काव्य चाहे ऐतिहासिक हो, चाहे पौराणिक, चाहे काल्पनिक, उसे कवि लोग साहित्यशास्त्र के ही नियमानुसार लिखते थे और सम्भावना अथवा असम्भावना का विचार न करके नायक के चरित को, जहाँ तक उनसे हो सकता था तहाँ तक, उच्च से उच्च करके दिखलाते थे। जान पड़ता है, इन्हीं कारणेां से बिल्हण ने चालुक्यवंशीय राजाओं को अमानुषी कृत्य करनेवाले बतलाया है। अस्तु, अप्रासङ्गिक बातों और