पृष्ठ:विक्रमांकदेवचरितचर्चा.djvu/२४

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अभी तक बिल्हण ने अपने विषय में जो कुछ कहा सब तृतीय-पुरुष में कहा; अब अपने आत्मचरित का अन्त आप प्रथम-पुरुष में करते हैं-

सब कहीं मैंने अनन्त सम्पत्ति सम्पादन की; सब कहीं मुझे पुण्यात्माओं के मिलने योग्य वर और आशीर्वाद मिले; विपक्षियों के साथ विवाद करने में, सब कहीं, मेरा जय हुआ। 'अब मेरी यह इच्छा है कि, शीघ्र ही, मैं अपने देश के काश्मीरके विद्वानों से वार्तालाप करूँ। मैं राजाओं की कृपा का पात्र हुआ; मेरा वैभव भी बहुत बढ़ा; शास्त्रावलोकन भी मैंने किया; प्रतिपक्षियों को परास्त भी मैंने किया। अब मेरी इच्छा भगवती जाह्नवी के दर्शन करने की है। हे नरपतिगण! लक्ष्मी बिजली के समान चञ्चल है; वह किसी प्रकार स्थिर नहीं की जा सकती। मृत्यु की भूचक दुन्दुभी, सब काल सबके सिर पर बजा करती है। इसलिए सच्चे कवियों का सत्कार करो; वही तुम्हारे कीर्तिरूपी शरीर की रक्षा करेंगे। उनसे विरोध करना छोड़ो, उन्हीं की कृपा से तुम्हारा यश सब ओर फैलता है। देखो, प्रसन्न होकर कवियों ने राम के चरित को अजरामर कर दिया, और