के लोभ से एक राजा की सभा से दूसरे राजा की सभा में जाते हैं, उसी प्रकार बिल्हण के समय में भी कवि और पण्डित अपनी विद्या और कविता का परिचय देते हुए और विवाद करने की इच्छा रखने वाले पण्डितों से शास्त्रार्थ करते हुए दूर देशों को चले जाया करते थे। इस प्रकार के देशाटन में अर्थ की भी प्राप्ति होती है और तीर्थ तथा देवदर्शन से धर्म की भी। इन्हीं कारणों से बिल्हण ने भी काश्मीर छोड़ कर इस देश के और भागों में पर्यटन किया।
काश्मीर छोड़कर पाञ्चाल होते हुए बिल्हण पहले मथुरा पहुँचे। वहाँ से गङ्गा को पार करके यह क़न्नौज गये, वहाँ से प्रयाग, और प्रयाग से काशी। काशी से आगे पूर्व की ओर वह नहीं बढ़े। वहाँ से दक्षिण की ओर वह राजा कर्ण के यहाँ पाये। इस कर्ण की राजधानी दाहल में थी। किसी किसी का यह मत है कि चेदी अर्थात् चँदेरों ही का दूसरा नाम दाहल है। कुछ भी हो दाहल, बुंदेलखण्डही का कोई प्राचीन राजस्थान जान पड़ता है; क्योंकि, उसके राजा (कर्ण) के द्वारा कालिञ्जर का विजय किया जाना वर्णित है। कालिञ्जर, बाँदा के पास