पृष्ठ:विक्रमांकदेवचरितचर्चा.djvu/६३

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अपने भाई के साथ, तिसपर भी, कोई बुरा व्यवहार नहीं किया। उसके साथ विक्रम ने दयालुता ही का बर्ताव किया।

विक्रम जब कल्याण को लौटा तब शिशिर ऋतु थी। इस ऋतु के अनुकूल सुखोपभोग करके उसने मृगया के लिए प्रस्थान किया और अनेक सिंह, शूकर, हरिण इत्यादि अपने तीक्ष्ण बाणों से मार गिराये। यह मृगयावर्णन भी, काव्य का एक अङ्ग समझ कर ही, शायद, बिल्हण ने विक्रमाङ्कदेवचरित में रक्खा है।

जब विक्रम ने अपने सब शत्रुओं को परास्त करके उनके देशों को अपने अधिकार में कर लिया तब उसके राज्य में सब कहीं शान्ति ही शान्ति दिखलाई देने लगी। प्रजा को किसी प्रकार का दुःख न रहा। दुर्भिक्ष और अकालमृत्यु का भय जाता रहा। मेघ यथासमय बरसने लगे। दान में वह कर्ण से भी बढ़ गया। प्रजा को वह पुत्रवत् समझने लगा। नेत्रों को सुख देने वाले उसके पुत्र भी हुए। अपना नाम चिरस्मरणीय करने के लिए उसने अनेक धर्म्मशालायें और देवस्थान भी बनवाये। कमलाविलासी नामक विष्णु का एक