करता हूँ"-इस प्रकार स्पष्ट लिखा है। इस पञ्चाशिका का अन्तिम श्लोक बहुत ही मनोहर-
भाव-पूर्ण है। अनुकूल समय पाने पर पण्डित लोग बहुधा उसे कहते हैं। वह यह है-
अद्यापि नोज्झति हरः किल कालकूटं;
कर्म्मों बिभर्ति धरणी खलु पृष्ठभागे ।
अम्भोनिधिर्वहति दुःसहवाडवाग्नि-
मङ्गीकृतं सुकृतिनः परिपालयन्ति ।
अर्थात् कालकूट विष को पी कर अब तक उसे शङ्कर ने अपने कण्ठ में स्थान दे रखा है, फेंका नहीं, कूर्म्म ने अपनी पीठ पर पृथ्वी को एक बार जो रक्खा तो अब तक रक्खे ही हुए हैं; सागर भी अत्यन्त दुःसह वड़वानल को पूर्ववत् धारण किये है; सच है-सत्पुरुष जिसे एक वार अपना लेते हैं उसको फिर कभी नहीं छोड़ते; उसका सर्वदा परिपालन ही करते हैं। सचमुच यह बहुत ही अच्छा पद्य है और बिल्हण की अद्भुत प्रतिभा का नमूना है।
बिल्हण ने इस पञ्चाशिका में अपनी प्राणाधिका के सम्बन्ध में अत्यन्त ही श्रृङ्गारिक श्लोक कहे हैं। उनमें कहीं उसके रूप का वर्णन है; कहीं उसकी