को हिन्दुस्तान भेजने की कोई ज़रूरत नहीं समझती। अब तो, सुनते हैं, कालेजों में अँगरेज़ ही संस्कृत पढ़ावेगे। हिन्दु- स्तानियों से सिर्फ़ छोटा-मोटा काम लिया जायगा। संस्कृत पढ़ाने का काम तो शायद एक न एक दिन अँगरेज़-पण्डितों के हाथ में चला ही जायगा। पर अध्यापकी के साथ-साथ यदि पुरोहिती के काम का भी चार्ज यही लोग ले लें तो बड़ी दिल्लगी हो।
डाक्टर थीबो के पूर्वज प्रसिद्ध पुरुष थे। वे अच्छे- अच्छे उहदों पर थे। विद्वत्ता भी उनमें कम न थी। उनके प्रायः सभी गुणों ने थीबो साहब का आश्रय लिया है। संस्कृत का शौक़ आपको लड़कपन ही से है। हीडलबर्ग और बर्लिन के विश्वविद्यालयों में अध्ययन करके थीबो साहब लन्दन गये। वहाँ तीन-चार वर्ष वे मैक्समूलर साहब के साथ रहे। उनकी सङ्गति से थीबो साहब की संस्कृत विद्या ख़ूब विशद हो गई। १८७५ ईसवी में अँगरेज़ी सरकार ने उन्हे अँगरेज़ी और संस्कृत पढ़ाने के लिए अध्यापक नियत किया। वे बनारस- कालेज को भेजे गये। उनके पहले इस पद पर बड़े-बड़े विद्वान् रह चुके थे। पर तनख़्वाह कम होने के कारण कोई इस जगह पर बहुत दिन तक नहीं ठहरा।
डाक्टर थीबो का नाम पहले पहल शुल्व-सूत्रों पर एक लेख लिखने के कारण हुआ। इस लेख मे डाक्टर साहब ने दिखलाया कि वैदिक समय में ज्यामिति-शास्त्र का थोड़ा-बहुत