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विद्यापति । रखो । १६५ आज देखिय साखि वड अनमन सनि वदन मलिन सन तोरा ।। मन्द वचन ताहि के न कहल अछि से न काहय किछु मीरा ॥२॥ | राधा ।। आजुक रइनि सखि कठिन वितल अछि कान्हें रभस कर भन्। गुन अवगुन पहु एक न बुझलनि राहु गरासल चन्दा ॥ सखी। अधर सुखायल केश ओरझायल घाम तिलक बहि गेली । बारि विलासिनि केलि न जानाति भाल अरुण उड़ि गेला ॥६॥ भनहि विद्यापति सुन वर जौवति ताहे कङ्घ किय में ये किछ पहु देल अचर झॉपि लेल सखी सब कर उपहास । राधा । १६६ प्रथम समागम के नहि जान । सम कए तौलल पेम परान ॥२॥ केल कसउटा न भेल मलान 1 बिन हुतवह भेल बारह चान विक्लए गेलिहू रतन अमोल । चिन्हि कहुवनिके घटाल में
- साख न रए र । काच कनक लए गॅथि गमार ॥ नई विद्यापनि असमय वानि । लाभ लाइ गेलाहु मुलहु भक्त है
चारह चान ॥४॥ ॥ मारे हुमुलहु भेल हानि ||१ of