पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१११

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विद्यापति । राधा । दृढ परिरम्भने पिडलि मदने । उवार अयलाहुँ सखि पुरुब पुने ॥ २ ॥ टुटि छिड़ियायल मोतिम हारे । सिन्दुरे लुटायल सुरङ्ग पवारे ॥ ४ ॥ | सुन्दर कुच युग नख खत भरी । जनि गज कुम्भ बिदारल हरी ॥ ६ ॥ अधर दशन देखि जिव मोर केपि । चॉद मण्डल जनि राहुक झपे ॥ ८ ॥ समुद्र ऐसनि निशि न पाविय ऊरे । कखन उगत मोर हित भए सूरे ॥१०॥ | मोनहि जाएव सखि तन्हि पिठामे । बरु जिव मारि नडाबथु कामे ॥१२॥ । भनइ विद्यापति तेज भय लाजे । आगि जाड़िय पुनु आगिहिक काजे ॥१४॥ राधा । २०२ हम अति भीत रहल तनु गौइ । से रससागर थिर नहि होई ॥२॥ रस नहि होएल कएल जे साति । दमन लता जनि दमसल हाति ।।४।। पुनु कत काकु कएल अनुकूल । तबहे पाप हिय मझु नहि भूल ॥६॥ हमर अछल कत पुरुबक भागि । फिरि आयौल हम से फल लागि ॥६॥ विद्यापति कह ने करह खेद । ऐसन होयल पहिल सम्भेद ॥१०॥