पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/११३

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विद्यापति । १ ०५

- राधा । २०५ रामा तोरि बढाउलि केलि । कृत्य देखल नाव नलिनी मत मतङ्गज मेलि ।।२।। गौर सरीर पयोधर कोरी पर अरुण भेल ।। कनक चलरि जनि रतोपल मुकुले उदय देल ॥४॥ छैल जन जदि देने न पाइअ ताहेरि हृदय मन्द । खने खने रतिरभसे अगर दिने दिने नव चन्द ॥६॥ मझे नवीना पिआ साना कुपत कुसुम वान् । केसरि कर करनी पड़लि तासु मह्ते छौड़ान ॥७॥ से जे अवसर भन न विसर नयन चलए नीर । सिरिस कुसुम खगे खेलौलन्हि भमर भरे जे भीर ||१०|| भने विद्यापति सुनह जीवति पेमक गाहक कन्त ।। राजा शिवसिंह रूपनरायन सुरस विन्द सुतन्त ॥१२॥ राधा । पहिलुकि परिचय पेमक सञ्चय रजनी ध समाजे । सकल कलारस सभरि न भेले बैरिन भैलि मोरि लाजे ॥२॥ साए साए अनुसए रहलि बहूते । तन्हिहि सुबन्धुके कहिए पठाइअ ज भमरा होय दूते ॥४॥ खनहि चीर धर खनहि चिकुर गह करय चाह कुचभङ्गे । एकलि नारि हमे कत अनुरजब एकहि बेर सबै रङ्गे ॥६॥ तखने विनय जत से सवे कहब कत कहए चाहल करे जोली । नवए रस रङ्ग भइए गेल भङ्ग ओड धरि न भेले वोली ॥८॥ भनइ विद्यापति सुन वर जौवति पहु अभिमत अभिमाने ।। राजा सिवसिंह रूपनरायन लखिमा देइ विरमाने ॥१०॥