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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२३०

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२१४ विद्यापति । चतुर दूति तव मनहि बिचारल कहत ललिता सञो चात् । काहे विमुख भइ बैसाले दूवरि कि भेल अाजुक बात ॥४॥ हेरि ललिता साख मृदु मृद बोलत हमरि करम मन्द भेल । नागर किशोर कुने निशि बञ्चल चन्द्रावलि सञों केल ॥६॥ हास हसि नियरे जाइ दुति वैसले कहतहि मधुरिम वानि । इह लघु दोखे रोख जव मानसि के कह तोहे सयानि ॥८॥ उठ उठ सुन्दरि मान दूर कर वाहु पसार करु कोर । फटकि हात वात नहि सुनल कोपे भरल तनु जोर ॥१०॥ राहिक निठुर बचन शुनि सहचर कोपे भरल सब गात । भूपतिनाथ कह रोखे तब वोलत जवहि फटकल हात ॥१२॥ टूती । ४२० आखल लोचन तम ताप विमोचन उदयति आनन्द कन्दै ।। एक नलिन मुख मलिन करय जनि इथे लागि निन्दह चन्दे ॥२॥ सुन्दर बुझल तुय प्रतिमाती ।। गुन गन तेजि दोष एक घोषसि अन्ते श्रीहरिनि जाती ॥४॥ सकल जीव जन जिव समीरन मन्द सुगन्ध सुशीते ।। दीपक जोति परशे यदि नाशय इथे लागि निन्दह मारुते ॥६॥ स्यावर जङ्गम कीट पतङ्कम सुखद जे सकले शरीरे ।। कागद पत्र परगे जो नाशय इथे लागि निन्दह नारे ॥२॥