पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२४

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विद्यापति । माधव । नाहि उठल 'तारे से धनि राहि । मम मुख सुन्दर अवनत चाहि ॥ ३॥ ए सखि पेखल अपरुव गौर । चल कर चित चोरायल मार ॥ ४ ॥ एकलि चललि धनि होइ अगुयान । उमगि कहइ सखि करह पयान ।। ६ ।। किये धनि रागि विरागिनि होय । आश निराश दगध तनु मोय ॥८॥ कैसे मिलव हमे से धनि अवला । चित नयनमफु दुहु ताहे रहला ॥ १० ॥ विद्यापति कह शुनह मुरारि । धैरज धए रह मिलच वरनारि ॥ १२॥ (५) अगुयान=आगे होकर (६) उमग=द्रुतगति, देड़ कर। माधव । ४२ किय मकु दिठि पड़लि शशि वयना । निमिख निवार रहल दुहु नयना ॥२॥ दारुण बँक विलोकन थोरा । काल होय किए उपजल मोरा ॥४॥ मानस रहल पयोधर लागि । अन्तरे रहल मनोभव जागि ॥६॥ श्रवण रहल अछ शुनइते राव । चलइते चहि चरण नहि जाव ॥ आशा पाश न तेजइ संग । अनायत कयल हमर सव अंग ॥१॥ (१०) अनायत= अनायत्त, अपना अधीन नहीं रहा।