पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२६

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विद्यापति । माधव । अपरूप पखल आई। कनक गिरि आउध, मुखे चान्दुहु गरासे जाई ॥२॥ आओर पेखल कुच जुग माझे लोलिम, मोतिम हारे । कनक महेश कामहु पूजल जनि सुरनदि धारे ॥४॥ हरि हँसि उर अम्बरे झॉपल बम नयाने सेंह । से बिनु मोर चित्त चेाकुल धैरज. नहिं धर देह ॥६॥ ( १ ) आई=आज । (३) सेह=से। माधव । अधि बदन हेरि लोचन अधः । देखवा किये, अरु, पुन भेल साध ॥२॥ पुन नहिं दिठि भरि पेखल भेला । मेघ विजुरिजइसे उगिनुकि गेला ॥४॥ जाइते पेखल नागरि नारि । हृदए बुझाएल पलटिः निहारि ॥६॥ मन्थर गमने झूझल अनुरागि ।, तिल एक देखल अवहु मन जागि ॥८॥ रूप भूलल ऑखि गैलइ गेल । तुवधरि जगभरि फुलशर भेल ।।१०॥