पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२९५

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विद्यापति ।

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२७७ विद्यापति । | हार टुटल परिरम्भन केलि । मृगमद कुङ्कम पारिमल गेलि ॥१०॥ निरसि अधर मधु पिव मातोयार । भुखिल भमर कुसुम अनिवार ॥१२॥


--- सखी ।

राही जव हेरल हरि मुख ओर । तैखने छल छल लोचन जोर ॥ २ ॥ जवहु कहलह्नि लहु लहु बात । तवहु कयल धनि अवनत मात ॥ ४ ॥ जव हरि धरलह्नि अञ्चल पाश । तैखने ढरे ढर तनु परकाश ॥ ६ ॥ जव पहु परशल कञ्चुक सङ्ग । तैखने पुलके पूरल सव अङ्ग ॥ ८ ॥ पूरल मनोरथ मन उदेस | कह कविशेखर पिरीत विशेस ॥१०॥ राधा । ५५२ कि पुछसि हे सखि कानुगुन नेहा । एकहि परान विहि गढ़ल भिन देहा ॥२॥ कहिल जे काहनि पछइ कत रे । कत सुख पावय मझु मुख हेरि ॥४॥ वृनु मझु दरों परशे नहि जीव । म विनु पियासे पानि नहि पीव ॥६॥ धुनक श्रीलसे जद पलटि होउ पाम् । मान भये माधव उठय तरास ॥८॥ उर विन सेज परश नहि पाई । चिवहि विन ताम्बुले नहि खाइ ॥१०॥ भनि सञ कहिनी न सह परान । अनि सम्भासने हरय गैयान ॥१२॥ कह कावरञ्जन सुन वरनारि । तोहर प्रेम धने लुबुध मुरारि ।।१४।।