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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३०३

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२८५
विद्यापति ।

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विद्यापति । २८५ कुन्तल कुसुम दाम हरि लेल । वरिहा माल पुनाह मोहि देल ॥१०॥ नासा मतिम गमक हार । जतने उतारल कत परकार ॥१२॥ कचुक फुगइते पहु भेल भोर । जागल मनमथ वान्धल चोर ॥१४॥ भनइ विद्यापति एहु रस भान । तुहु रसिका पहु रसिक सुजान ॥१६॥ ---•e:---- सखी । ५७० हरि धरु हार चेउक परु राधा । आध माधव कर गिम रहु आधा ॥ २ ॥ कपट कोपे धनि दिठि धरु फेरी । हरि हसि रहल वदन विधु हेरी ॥ ४ ॥ मधुरिम होस गुप्त नहि भेला । तखने सुमुखि मुख चुम्वन देला ॥ ६ ॥ करे धरु कुच कुल भैलि नारी । निरखि अधर मधु पिवए मुरारी ॥ ८॥ चिकुरे चमरे झरु कुसुमक धारा । पिविकहु तम जनि वम नव तारा ॥१०॥ विद्यापति कह सुन्दर वानी । हरि हसि मिललि राधिका रानी ॥१२॥ राधा । ५७१ पहिलहि परसए करे कुचकुम्भ । अधर पिवएके कर आरम्भ ॥ २ ॥ खलुक मदन पुलके भरि पूज। नीवीवन्ध विनु फोएले फूज ।। ४ ।। ए सखी लाजे कहब की तोहि । काहुक कथा पुछह जनु मोहि ॥ ६ ॥ धम्मल भार हार अरुझाव । पीन पयोधर नखे खत लाव ॥ ८ ॥ चाहु वलय ऑकम भरे भाङ्ग। अपन याइतमहि अपना आङ्ग॥१०॥