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विद्यापति । २६. माधव । ५३ पथ गति पेखल मो राधा । तखनुक भाव परान पै पीड़ाल रहल कुमुदनिधि साधा ॥ २ ॥ जुन्या नयनि नलिन जनु अनुपम वङ्क निहारइ थोरा । जनि एखल में खगवर वॉधल दिठिहु नुकाएल मोरा ॥ ४ ॥ आध वदनशशि विहसि देखाउलि आध पीहलि निग्न वाहू। किछु एक भाग बलाहके झॉपल किछु एक गरासल राहू ॥ ६ ॥ कर जुग पिहित पयोधर अञ्चल चञ्चल देखि चित भैलो । हेम कमलिनि जनि अरुणित चञ्चल मिहिर तर निन्द गेला ।। ८॥ भनइ विद्यापति सुनह मधुरपति इह रस के पय बाधी ।। हास दरस रसे सबहु बुझाएल नील कमल दुइ अाधी ॥१०॥ (१२) पथ चलते में राधा की देखा । उस समय का भाव प्राणमें पीड़ा दिया । कुमुदनिधि (राधा का मुखचन्द्र) का साध रहा । ( ५ ) पीहलिगेपन करना। (५६) Jीडा हुसकर मुपचन्द्र देखाइ, आधा अपनी बाँह से झोप ली। चुछ अशा (मुखका) मेघ (नीलाम्वर) झाप दिया, कुछ अश राहु (केश) प्राप्त किया। (७) पिहित=आवृत। (७-४) अन्चल से शावृत पर्याधर के उपर फरयुगल देख फर चित्तचञ्चल हुमा, जेसा स्वर्ण कमल (पर्याधर) चञ्चल रागयुक्त सूर्ययतले १ करतले) निद्रित हुआ। (९-१०) विद्यापति कहता है, सुनै मयुरापति, इस रस में फैन बाधा देता है ? हास्य और दर्शन रस से सब की चुझा दी के मृणाल और कमल दो आधा (तुम्हारा इस्त मृणाल और उसकी कुचकमल दो आधा–वियुक्त हुआ है। एकत्र होने से पूर्ण है। जायगा, यह सङ्केत हुआ)।