पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

विद्यापति। ३१६ । राधा । कर विनती जत जत मन लाइ । पिआ परिचव पचताव के जाइ ॥ २ ॥ धन धइरजे परिहरि पथ सोचे । करम दोसे कनकेओ भै काचे ॥ ४ ॥ | निठुर वालम्भु सों लाल सिनेहे । न पुरल मनोरथ न छाड्, सन्देहे ॥ ६ ॥ |सुपुरुस भाने मान भ्रन गेल । दिन दिन मलिन मनोरथ भेल ।। ८॥ जदि दृपन गुन पहू ने विचार । बड भए पसरओ पिसुन पसार ॥१०॥ परिजन चित नहि हित परथाव । धरपने जीव कतए नहि धाव ॥१२॥ हेम अवधार इलल परकार । विरह सिन्धु जिव दए वरु पार ॥१४॥ भनाई विद्यापति सुन वर नारि । धैरज कए रह भेटत मुरारि ॥१६॥ राधा । ६ ४२ 8 ओ रे जतेको निरवह। ए कहू ततेो अङ्गलह ॥ २ ॥ मधयहि मकरकेनु ॥ ४ ॥ हि ओ रे विनु हेतु। मेरए त ओ रे कहु हित । वड़ बोल छड़ बड अनुचित ॥ ६ ॥ कपट कइये कत ओ रे कह हित । बड़ बलि छ, भनि अवलो चरु ओ रे देय जिव । तर दुसह । भनई विद्यापति ओ रे सहि लेह । सुपुरुसे बच ओ रे सहि लेह । सपरुस वचन पसान रे ॥१॥