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विद्यापति ।। ३५७ » wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww• • •~-~ 12:05, 18 February 2019 (UTC)~~ ~~ • • • फहव कलावति कुन्त हमार । वारिस । परदेश यसए गमार ॥१०॥ सव परदेसि 'एके-सोभाव। गए परदेस पलटि नहि आव ॥१२॥ मार मनोज मरमें सर आहि । वरसा वरिअ बसन्तहु चाहि ॥१४॥ 1 है । ७१४ । । राधा । हम धनि तापिनी मन्दिरे एकाकिनी दोसर जन नहि सङ्ग । वरिषा परवेश पिया गेल दूरदेश रिपु भेल मत्त अनङ्ग ॥२॥ सजनि आजु शमन दिन होय । नव, नव जलधर चौदिसे फॉपल हर जीउ निकसय मोर ॥४॥ घन घन गराजत सुनि जिउ चमक्ति कम्पित अन्तर मोर । पपिहा, दारुण पिउ पिउ सुमरण भ्रम भ्रमि देइ तसे कोर ॥६॥ वरिखय पुन पुन गिदहन जनि जानला जीवन अन्त । विद्यापति कह सुन रमणीवर मिलव पहु गुणवन्त ॥८॥ । । । । ७१५ राधा। सखि है हमर दुखक नहि ओर २ । । ई भर वादर माह भादव सून मन्दिर मोर रे ॥२॥ - -