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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३९६

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विद्यापति । कङ्कण वलया गलित दुहु हात । फुयल कवरी न सम्वरि माय ॥ ८॥ चेतन मूरछन बुझइ न पारि । अनुखन घोर विरह जर जारि ॥१०॥ विद्यापति कहे निरदय देह । तेजल अव जगजन अनुलेह ॥१२॥ दुती । ७५२ , एके गोरि पातरि ताहे दुख कातरि अरु दुख विरहक जाला । कतय पराण पानि दए राखव गरासय मनमथ वाला ॥२॥ माधव भल नह तुअ अनुरागे । अपन पराण पिआ जा सझे वाटल हिआ ताहि दुख तोहे नहि लागे ॥४ करे धरि सिर गहि काहु किछु नहि कहि विरह विखिन घन रोइ । विरह वेयाधि भेलि सुन्दर तो विनु औखध कोई ॥६॥ दूती । ७५३ लोचन नीर तटिनि निरमाने । करए कमलमुखि तयिहि सनाने ।। २ ।। सरस मृणाल कइए जपमाली । अहनिस जप हरि नाम तोहारी ॥ ४ ॥ वृन्दावन कान्हु धनि तप करई । हृदयवेदि मदनानल , वरई ।। ६ ।। जिव कर समिध समर करे आगी । करति होम वध होएवह भागी ॥ ८ ॥