पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४१३

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विद्यापति । ३६३ काहुका नलिनी दुल काहुका चन्दना। के कहे प्राओल नन्दनन्दना ॥ ८ ॥ शीतल पनारी हृदय धरु कोय । चान किरणे केओ करे धरु गोय ॥१०॥ केहु मलयानिल वारइ चीरे । केहु करय नव किशलय दूरे ॥१२॥ मधुकर धुनि सुनि के मुन काने । करतल ताल कोकिल खेद आने ॥१४॥ कन्त दिगन्तहि केहो केहो जाय । केहो केहो हरि गुण परयाय ॥१६॥ अबुझ सखि जन न जानथि आधि । आन ओपध कर आन उपाधि ॥१८॥ दूती । ७८० किशलय सयने आगि कए मानए सखिगण ने पार बुझाय । मनिमय मुकुरे देखि पुनु मुख चान्द भरमे मुरछाय ॥२॥ माधव कहलम तोहर दोहाइ । जइसन राहि आजु हम पेखल कहइते के पतिप्राइ ॥॥ विगालत केश सास वह खरतर नहि रह नीवि निवन्ध । कम्बु कन्दर धरए न परिई टुटल पञ्जर वन्ध ।।६।। नव किशलय चन्दने सोयाअल अधिक जर जनि आगि । कि घर बाहर पडय निरन्तर अहनिसि पेखय जागि ॥८॥ भनइ विद्यापति सुनह शिरोमणि तोरित मिलह धनि पास ।। सकल सखिगण हेरत वियोगिनि दसमि दसा परकास ।।१०।। 50