पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४२४

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विद्यापति । न देखि धनुगुन न देखु सन्धाने । चौदिस परए कुसुम सर याने ॥ ४ ॥ | वङ्क विलोचन विकसित थोरा । चॉद उगल जनि समुद्र हिलौरा ॥ ६ ॥ उठलि चेहए आलिङ्गन बेरी । रहलि लजाए सुनि सेज हेरी ॥ ८ ॥ | भनइ विद्यापति सुनह सपने । जत देखलह तत पूरतौह मने ॥१०॥ राधा ७६८ करे कुचमण्डल रहलिहूं गोए । कमल कनक गिरि झॉपि न होए ॥ २ ॥ हरख सहित हेरलाह मुख कॉति । पुलकित तनु मोर धर कत भॉति ॥ ४.।। तखने हरल हरि अञ्चल मोर । रस भरे ससरु कसनिकेर डोर ॥ ६ ॥ सपना एक सखि देखल मोझे आज । तखनुक कौतुक कहइते लाज ।। ८ ।। । आनन्दे नोरे नयन भरि गेल । पैमक ऑकुरे पल्लव देल ॥१०॥ भनइ विद्यापति सपना सरुप । रस चूझ रूपनरायन भूप ॥१२॥ राधा । ७६६ सपन देखल हरि उपजल रहे । पुलक पुरल तनु जागु अनङ्गे ॥ २ ॥ बदन मेराए अधर रस लेला । निसिअवसान कान्ह कॅहा गेला ॥ ४ ॥ का लागि नीन्द भॉगलि विधि मोरा । न भेले सुरत सुख लागल भोरा ॥ ६ ॥ .