पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४४३

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विद्यापति । जो श्रीखण्ड सौरभ अति दुर्लभ त पुन काठ कठोर । ज जगदीश निशाकर त पुन एकहि पक्ष इजौर ॥४॥ मनि समान अोरो नहि दोसर तनिकै पाथर नामे । कनक कदलि छोट लज्जित भै रहु की कहु ठामहि ठामे ।।६।। तोहर सरिस एक तोह माधव मन होइछ अनुमाने । सज्जन जन सौं नेह कठिन थिक कवि विद्यापति भाने ॥८॥ राधा । ና खित रेणु गन जदि गगनक तारा । दुइ कर सिचि जदि सिन्धुक धारा ॥ २ ॥ पुरुव भानु जद पछिम उदीत । तइअो विपरित नह सुजन पिरित 1} ४ ॥ माधव कि कहच आन। ककर उपमा दिय पिरिति समान ॥ ६ ॥ अचल चलय जदि चित्त कह चात । कमल फुटय जदि गिरिवर माथ ॥ ८ ॥ दावानल शितल हिमगिरि ताप । चान्द जद विप धर सुधा धर साप ॥१०॥ भनइ विद्यापति शिवसिंह राय । अनुगत जन छाड़ि नहि उजियराय ॥१२॥ राधा । हतिक दरपन हृदयक मृगमद् माथक फुल । नयनक अञ्जन मुखक ताम्बुल ।। २ ।। गीमक हार । देहक सरवस गेहक सार ॥ ४ ॥