पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४६१

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विद्यापति । विद्यापति कह सुन्दरि धैरज मन अवगाह । जे अछि जनक विवाहिनी तनिका सह पय नाह ॥१०॥ १५ मङ्गल विलुविअ सिन्दुरे पिठारे । तहे भाल सोपलि सजिलि छारे ॥ २ ॥ चलह चल हर पलटि दिगम्बर । हमरि गोसानुनि तोह न जग वर ॥ ४ ॥ हर चाह गुरु गउरवे गौरी । कि करव तवे जयमाली तोरी ॥ ६ ॥ नअने निहारव सम्भ्रम लागी । हिमगिरि धीए सहब कइसे आगी ॥ ८॥ भाल वलइ नयनानल रासी । झरकत मउल डाढति पटवासी ।।१०।। बड़े सुखे सासु चुमओवाह मथा । ओठ चुरत सुरसरिके सथा ॥१२॥ करव सखी जने केलि अलापे । विलग होएत फुफुएत सापे ॥१४॥ विद्यापति भन बुझह जुगुती । मेलि कराउवि हमे सिव सकती ॥१६॥ जटाजूट दह दिस दुए हलु नमाए । वसह चढल उपगत भेल श्राए ॥ २ ॥ दुर सञो मन्दाइनि हलिअ पुछीए । के चरित्राती के इयि जमाए ॥ ४ ॥ कण्ठे आएल छइल्लेि वासुकि राए । सेहे वरिआती इसर जमाए ॥ ६ ॥ अइसन ठाकुर हर सम्पति थोरी । भर उठिाइलिछइह्नि भसमकझोरी ॥ ८॥ विधिन करए हर खेलए पासा सारि। सापक सङ्गे शिवे रचलि धमारि ॥१०॥