पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४६६

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विद्यापति । ।

२० प्रयमहि शङ्कर सासुर गेला । विनु परिचए उपहास पडला ॥ २ ॥ पुछियो न पुछल के वैसलाहजहाँ। निरधन आदर के कर कहाँ ॥ ४ ॥ हेमगिरि मड़प कौतुक वसी । हेर हसल सबे बुढ़ तपसी ॥ ६ ॥ से सुनि गोरि रहलि शिर लाए। के कहत माके तोहर जमाए ॥ ८ ॥ साप शरीर कॉख वौकाने । प्रकृति औषध के दृहु जाने ||१०|| भनइ विद्यापति सहज कहु । आडमुरे आदर हो सब तहू ॥११॥ अञ्जलि भरि फूल तोड़ लेल अनी । शम्भु अराधए चललि भवानी ॥ २ ॥ जाहिजुहि तोडल मञोरवेल पाते। उठिर महादेव भए गेल पते ॥ ४ ॥ जखने हेरलि हरे तिनिहु नयने । ताहि अवसर गरि पिड़ल मदने॥ ६ ॥ करतल कॉपु कुसुम छिाड़ाउ । विपुल पुलक तनु वसन झैपाउ ॥ ८ ॥ भल हर भल गोरि भल व्यवहारे । जप तप दुर गेल मदन विकारे ॥१०॥ भनइ विद्यापति इ रस गावे । हर दरसने गौरि मदन सतावे ॥१२॥


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२२ माटी भलि जोहिकहु अनलि वानी । शम्भू अराधए चलति भवानी ॥ २ ॥ अकि धुथुर फुल देल मोने जोही । जगत् जनमि डर छाडल मोही ॥ ४ ॥ -