पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४८८

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४५२ विद्यापति ।। मधुलुब्ध मधुकर निकर मुद्रित लोभ चुम्बन चुम्बिते ॥ ६ ॥ चुम्बति मधुकर कुसुम पराग । कोरक परसे वाढले अनुराग ॥ ८ ॥ चौदिस कर ए भृङ्ग झंकार । से सुनि वाढय मदन विकार ॥१०॥ चीर चन्दन चन्द्रतारक पाबको सम मानसे ।। हार कालभुजङ्गमेव हि विष सरस घन रस चय विसे ॥१२॥ मानिनी मन मानहारक कोकिलारव कलकले । । । । वह ए मारुत मलय संयुत सरल सौरभ शीतले ॥१४॥ शीतल दखिन पवन बह मन्द । ता तनु ताव ए चान्दन चन्द ॥१६॥ हृदय हार भेल भुजग समान । कोकिल कलरवे पिडल परान ॥१८॥ शरद निर्मल पूर्णचन्द्र सुवक्तू सुन्दर लोचनी । कथं सीदति सुन्दरी । प्रिय विरह दुःख विमोचिनी ॥२०॥ ताहि तर तरुण पयोधर धनी । ओजा शङ्कर कृष्णजनी ॥२२॥ अवसर पाउति एति खने विद्यापति कवि सुदृढ़ भने ॥२४॥ गोर पयोधर नखरेख सुन्दर मृगमद पङ्के लेपला ।। जनि सुमेरु ससि खण्ड उदित भेल जलधर जाले झपला ॥ २ ॥ अभिसारिन हे कपट करह को लागी । । । कान पुरुप गुने लुबुध तोहर मन रयनि गमउलह जागी ॥ ४ ॥