पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/५१२

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४७४ विद्यापति ।। अपुरुच रुपे जे विहि निरमाउल विद्यापति कवि भाने । राजा शिवसिंह रूपनरायन लखिमा देइ विरमाने ॥१०॥ १७ हर रिपु तनय तात रिपु भूपन ता चिन्ता मोहि लागी । तासु तनअ सुत ता सुत बन्धव उठाल चतुर धनि जागी ॥२॥ माधव ते तनु खिनि भैलि वाला ।। हरि हेरइते चिन्ताझे मने कुलि कठिन मदन सर साला ॥४॥ पुनु चिन्तह हरि सारङ्ग सवद सुनि ता रिपु लए पए नामा । तासु तनअ सुत ती सुत बन्धव अपजस रह निज ठामा ॥६॥ तरणि तनअ सुत ता सुत वन्धव विद्यापति कवि भाने । राजा शिवसिंह रूपनगयन लरिखमा देवि रमाने ॥८॥ १६ ए हर ए हरि कर अवधान । तु विनु करति भुअन ऋतु पान ॥ पचिस अठारह हरि तनु जार । क्षिति सुत तेसर नाम बरु मार ॥ । छओ अठारह हरि सम लाग । खतखरिया जके मलयज जाग ॥ पहिल पचिस अठाइस लेव । तासु वदन हेम हरि देव ।। हरिवाहन भख तइसन हार । कुच जुग भेल महीधर भार ॥ हीत जत तत कर दन्द । विधि विपरीत सब ए भउ मन्द ।।