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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/६१

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विद्यापति । Mananan MMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMM ठूती । तोहे कुल मति रति कुलमति नारि । बोके दरशने भुलल मुरारि ॥ २ ॥ उचितहु चौलइते श्रावे अवधान । ससय मेललहुतन्हिक परान ॥ ४ ॥ सुन्दरि कि कहब कहइते लाज । भोर भेला से परहु सञो वाज ॥ ६ ॥ थावर जङ्गम मनहि अनुमान । सबहिक विषय तोहर होअ भान ॥ ८॥ और कहि कि बुझओविस तोहि । जनिउधमति उमतावए महि ॥१०॥ दूतो। १०४ आसाझे मन्दिर निसि गमावए सुखे न सुत सज्ञान । जखने जतए जाहि निहारए ताहि ताहि तोहि भान ॥ २ ॥ मालति सफल जीवन तोर ।। तोरे बिरहे भुअन भमए भेल मधुकर भोर ॥ ४ ॥ जातक केतकि कत न अछए सवहि रस समान । सपनेहु नहि ताहि निहारए मधु कि करत पान ॥ ६ ॥ बन उपवन कुञ्ज कुटीरहि सवहि तोहि निरूप । तोहि विनु पुनु पुनु मुरुछए अइसन पेम सरूप ॥ ८ ॥ साहर नवह सउरभ न सह गुजर गीत न गाव । चैतन पापु चिन्ताजे आकुल हरखे सबै साहाब ॥ १० ॥ जकर हृदय जतहि रतल से धसि ततहि जाए । जइअओ जतने बॉधि निरोधि निमन नीर थिराए ॥ १२ ॥ इ रस रोए सिवसिंह जानए कवि विद्यापति भान । रानि लाखमा देवि वल्लभ सकल गुन निधान ॥ १४ ॥