पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/९०

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८४ विद्यापति ।

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राधा । १६३ माधव ए बेरि दुर दुर सेवा । दिन दस धैरज कर यदुनन्दन हमे तय वरि वरु देवा ॥२॥ केारि कुसुम मधु वेकत न रहते हठ जनु करिअ मुरारि ॥ तुम इह दाप सहए के पारत हम कोमल तनु नारि ॥४॥ आइति हठ जजो करवह माधव तो आइति नहि मोरी ॥ कॉच बदरि उपभोगे न त उहे की फल तोरी ।।६।। एतिखने अमिअ वचन उपभोगह आरति अनदिने देवा ॥ लखिमि नाथ भन सुन यदुनन्दन कलियुगे निते मोरि सेवा ॥८॥ राधा । १६ ४ अबला असुक वालम्भु लेला । पानि पलवध नि तर देला ॥२॥ हठ न करिह पहु न पूरत कामे । प्रथमक रभस विचारक ठाम ।। मदन भण्डार सुरत रस आनी । मोहरेमुन्दल अछ असमय जानी ॥६॥ मुकुलित लोचन नहि परगासे । कॉप कलेवर हृदय तरासे ॥ आवे नव जीवन समय निहारी । अपनहि वेकत होयत परचारी ॥१०॥ भनइ विद्यापति नव अनुरागी । सहिय पराभव पिय हित लागी ॥११॥